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मिस्टर मीडिया: हम अभी जंग लड़ जीती बाज़ी नहीं हारना चाहते, यह बात मीडिया के मंच पर कहां आई?
सत्तर साल नहीं बंटी, पत्रकारिता अब बंट गई। मतभेद होते थे, पर ऐसे न...
राजेश बादल 5 years ago
राजेश बादल
वरिष्ठ पत्रकार।।
सत्तर साल नहीं बंटी, पत्रकारिता अब बंट गई। मतभेद होते थे, पर ऐसे न थे। विचारधारा होती थी, मगर साथ चलते थे। कभी-कभी कड़वाहट दिखती थी। थोड़ी देर में भूल जाते थे। अब ऐसा नहीं होता। संवाददाता से लेकर संपादक तक, सब अपने-अपने खेमों में। अपने अपने गुटों में। अपने-अपने गिरोहों में। सामने वाले को दुश्मन जैसा समझते हुए। अखबारों में तो फिर भी ठीक है। टीवी चैनलों में गलाकाट माहौल है। राजनीतिक दलों के अपने-अपने पत्रकार। बीजेपी के अलग। कांग्रेस के अलग। निष्पक्ष पत्रकार के लिए संभावना क्षीण। छोटे परदे पर दलीय बंटवारा साफ़ दिखता है। परदे पर इसे समझने के लिए पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी नहीं। अनपढ़ भी पक्षपात पकड़ लेता है। आज के प्रोफ़ेशनलिज़्म में यह कोई अपराध नहीं। पुराने लोग अपने सरोकारों और मूल्यों को लेकर छाती पीटते रहें। अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
चंद रोज़ पहले मीडिया के एक सालाना जलसे में था। एक जाने-माने एंकर ने अपने चैनल की पत्रकारिता के गीत गाए। दूसरे चैनलों की धज्जियां उड़ाईं। फिर दूसरे चैनलों के एंकर आए। उन्होंने इशारों-इशारों में तंज कसे। पहले एंकर को जवाब दिया। दोनों पक्षों के हाथ में अच्छी पत्रकारिता करने के अवॉर्ड और प्रतीक चिह्न थे। अच्छा भला माहौल कसैला हो गया। सभी को तक़लीफ़ हुई। भारी मन से घर लौटे। जब सारे किसी न किसी खूंटे से बंधे हैं तो गरियाना क्यों? मेरी कमीज तेरी से ज़्यादा उजली-कहना क्यों? अपने-अपने हमाम में रहिए। उसकी सार्वजनिक नुमाईश तो न करिए। यह तो और भी पीड़ा देता है, जब हर चैनल अपने को साफ़ सुथरा और सामने वाले को मैला कुचैला मानता है। मैनेजमेंट भी अपने अपने प्रोफेशनल्स की हरकतें देखकर मन ही मन मज़े लेता है। स्थिति दुःखद और शोचनीय।
पुलवामा संहार अंदर तक हिला गया। पाकिस्तान को लेकर सारे चैनलों में ग़ुस्सा फूटा। लेकिन आक्रोश को व्यक्त करने के अंदाज़ अलग-अलग। कवरेज पर अपने अपने मुलम्मे चढ़ाए हुए। ग़ुस्से ने सारे स्क्रीन पर क़ब्ज़ा कर लिया। लगा कि सब एक-दूसरे को ज़बानी जंग में हराना चाहते थे। इस जंग में जैसे सब जायज़ था। कुचल दो। नक़्शे से नाम मिटा दो। महसूस हुआ कि अगर स्टूडियो में कहीं परमाणु बम का बटन होता तो कोई एंकर दबा ही देता। आपकी देशभक्ति को सलाम है! लेकिन भाई, ज़िम्मेदार पत्रकार होने के नाते पत्रकारिता तो उसी भाव से कीजिए। पुलवामा के बाद भारतीय टेलीविजन के परदे पर हुई कवरेज इतिहास के पन्नों में सुरक्षित रखनी चाहिए। नई नस्ल को पता हो कि कभी इस तरह का समय आए तो किस तरह की कवरेज नहीं करनी चाहिए। (भगवान करे इसकी नौबत न आए) चुनाव का समय है तो नेताओं में युद्धोन्माद स्वाभाविक है। मगर एक पत्रकार की बौद्धिक क्षमता और समाज का मस्तूल बनने की पहचान भी इसी अवसर पर होती है। जंग समस्या का हल नहीं, बल्कि यह अपने आप में समस्या है। दूसरी बात यह कि जंग आख़िरी हथियार होता है। उसके बाद कुछ नहीं बचता। क्या विचारशील मीडिया इससे पहले के चरणों का सुझाव राजनेताओं को नहीं दे सकता था?
पुलवामा संहार के बाद भारत क्या कर सकता था और जो मीडिया ने नहीं सुझाया। मोस्ट फेवरेट नेशन का दर्ज़ा वापस लेने का फैसला लेने तक तो ठीक था। इसके बाद तो जिस तरह जंग की भाषा नेताओं ने बोली और पत्रकारों ने सुर में सुर मिलाया, उसने सोच के वैकल्पिक रास्तों को रोक दिया। उस पर अगले किसी कॉलम में लिखूंगा। मगर इतना तो सोचना था कि यह मौसम घाटी में बर्फ़ का है। बर्फ पिघलने से पहले कोई भी फ़ौज़ जंग नहीं छेड़ सकती। बांग्लादेश बनने से पहले इंदिरा गांधी ने जनरल मानेक शॉ से पूछा था,' क्या मार्च-अप्रैल में पाकिस्तान की हरकतों का उत्तर दे सकते हैं? मानेक शॉ ने कहा था कि यह समय पूरब में मानसून का है। वहां बारिश और दलदल होगी। हम इस मौसम में लड़ कर जीती बाज़ी नहीं हारना चाहते। इसीलिए दिसंबर तक इंतज़ार किया गया। यही बात पाकिस्तान ने भी सोची थी। मौसम सूख गया और कश्मीर में भी बर्फबारी शुरू ही हुई थी। इस कारण हमें युद्ध जीतना आसान हो गया। यह बात मीडिया के मंच पर कहां आई?
आप आयात-निर्यात रोक सकते हो, चिकित्सा वीसा रोक सकते हो, चीन और सऊदी अरब के साथ कारोबार घटा कर उनके ज़रिए संदेश दे सकते हो, दूतावास बंद कर सकते हो, कूटनीतिक रिश्ते तोड़ सकते हो, विदेशों में अपने मंत्री भेज कर प्रेस को सच्चाई बयान कर सकते हो, सार्क जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की निंदा करा सकते हो, संसद का आपात सत्र बुलाकर दस-पंद्रह दिनों तक लंबी चर्चा करा सकते हो,संसद के बाद सिंधु नदी जल समझौते को तोड़ सकते हो और पूरी दुनिया में पाकिस्तान विरोधी सम्मेलनों की बाढ़ लगा सकते हो। तब तक बर्फ़ भी पिघलने लग जाती।अफ़सोस ! किसी पत्रकार ने इस तरह की सीख या नसीहत सियासत को नहीं दी। मस्तूल पर बैठे कप्तान की भूमिका में भी कभी आना होता है। यदि ऐसा न किया तो पछताने के सिवा कुछ नहीं बचेगा मिस्टर मीडिया!
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