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‘मीडिया में आने वालों के लिए सुझाव- यहां आएं तो एक बैकअप के साथ’

ये एक सवाल है जो हमारे सामने हैं। उन सभी लोगों के सामने हैं...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago

अमर आनंद

पूर्व कार्यकारी संपादक, चैनल वन ।।

अब यहां के कहां जाएं हम?

ये एक सवाल है जो हमारे सामने हैं। उन सभी लोगों के सामने हैं जो मीडिया की अनिश्चिचितता, अनियमितता और सरोकार से ज्यादा सरकार की तरफ मीडिया के झुकाव के बाद पैदा हुए हालात के बाद हमारे सामने आया है। एक तरफ फिल्मसिटी के चंद चमकते चैनल हमारे सामने हैं जिनके टोन से उनकी सत्ता उम्मुख होने का अंदाजा आपको हो जाएगा, तो दूसरी तरफ नोएडा सेक्टर-63 के वो चैनल जो या तो तमाम यत्नों-प्रयत्नों के बावजूद शहादत की तरफ बढ़े चले हैं। नोटबंदी और बाद से चरमराई हुई अपनी स्थिति से उबरने की कोशिश में और डूबते चले गए। खास तौर से यूपी/उत्तराखंड पर केंद्रित करीब दर्जन भर चैनलों में से ज्यादातर की यही स्थिति है। वो चैनल कहां जा रहे हैं, उनमें काम करने वाले हजारों लोगों का क्या भविष्य होगा, ये सोच कर डर लगने लगता है।

सबके सामने ईएमआई का सवाल है। बच्चों की पढ़ाई का सवाल है। अम्मा-बाबू जी की दवाई का सवाल है। सवाल कई हैं और सामने चक्रव्यूह है। सवालों के चक्रव्यूह के साथ अभिमन्यु। कई मीडियाकर्मी ऐसे ही सूरते हाल मे घिसट घिसट कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं और कई  की उम्मीदें दम तोड़ चुकी हैं। वापस अपने गृह जिलें की तरफ का रुख कर लिया है और वहां पहुंच कर रोजी रोटी की नई योजना पर काम कर रहे हैं। लंबे समय तक आधी से ज्यादा उम्र तक एक काम को एक कल्चर और एक दायरे में जीने के बाद फिर से नया-नया 'रण' आसा नहीं होता है, लेकिन दौर की दिक्कतों पर काबू पाने के लिए उम्मीद की कोई और किरण दिखाई नहीं पड़ती। 

हमारे कई साथियों से इस मसले पर रोज बात होती है। 45 पार कर चुके हमारे एक सीनियर किसी एक बड़े निम्न मध्यम चैनल में बेरोजगारी के बाद कार्यरत थे। उसके बाद वो कहीं और गए लेकिन उनकी समस्याओं की विकरालता खत्म नहीं हुई और वो तभी खत्म होगी जब एक निश्चिच रकम तय समय पर उनके घर खर्च के लिए मिलेगी, जिसकी संभावना उन्हें दिखाई नहीं पड़ रही है। ऐसा नहीं है कि सीनियर ही नए पुराने टीवी चैनलों के माहौल और उसमें अपने लिए नाउम्मीदों से परेशान हैं बल्कि जूनियर और अपेश्राकृत कम उनुभव वाले भी नाउम्मीद हैं। ज्यादातर जूनियर्स को बड़े चैनलों में मौके ही नहीं मिल रहे हैं और बड़ी मुश्किल से जहां उन्हें काम करने के मौके मिल भी रहे हैं वहां का माहौल देखकर वो अपने भविष्य को लेकर भयभीत हैं। ऐसे कई नवांकुर पत्रकारों से रोज बात और संवाद का मौका मिलता है।

इन अनुभवों में उन लड़कियों के अनुभव तो थोड़े अलग हैं, जिन्हें उनके कार्यस्थल में बॉस और सहयोंगियों की गंदी नजर का शुरू से ही शिकार होना पड़ता है और बॉस की 'उम्मीद' पर फिट नहीं होने की वजह से उनकी बढ़त और तरक्की पर सवालिया निशान लग जाते हैं। पटना से दिल्ली आई एक टीवी एंकर पहले नौकरी नहीं मिलने से बहुत परेशान थी। अब मित्रों और शुभचिंतकों की मदद से दिल्ली से थोड़ी दूर पर हरियाणा के एक शहर में उसकी नौकरी लग गई, तो वहां वो पहले से ज्यादा परेशान हैं और एक तरह से बचाओं- बचाओं के अंदाज में फोन या वॉट्सऐप करती है।  

एक बहुत बड़े चैनल में काम कर रहे एक अनजान से फेसबुक फ्रेंड की पोस्ट देखी। मीडिया छोड़कर कुछ और करना चाहता हूं मेरा मार्गदर्शन करें। मैंने उस पत्रकार से संपर्क करने की कोशिश की और कहा कि आप मुझसे मिलो शायद मैं आपके लिए कुछ कर सकूं। एक और राष्ट्रीय चैनल में कार्यरत अपने सीनियर मित्र से हाल चाल के दौरान पता चला कि वो मीडिया के माहौल को तकरीबन मर्ज समझने लगे हैं और इसकी दवा की तलाश में दवाइयों का काम करने की योजना पर काम कर रहे हैं। 45 की उम्र में रोजगार नया जरिया वो जर्नलिज्म में इतने पुराने अनुभव के साथ ये कैसे संभव होगा?

दिल्ली के पास इंदिरापुरम में किराए के घर में रहने वाले दो स्कूली बच्चों के पिता का जवाब था, देखते हैं, करते हैं कुछ अपने लोग इसी फील्ड में हैं उनसे मदद मिल जाएगी। यानी तकरीबन 20 साल से ज्यादा काम करने के बाद देखते हैं करते हैं जैसी अनिश्चितता का आलम वो भी तब जब घर किराये का हो और बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हों। सोचिए हम किधर जा रहे हैं और यहां से आगे कहां जाएं?

टीवी चैनलों के माहौल और कार्य पद्धति को कुछ अतिरिक्त होशियार पत्रकारों और कुछ अतिरिक्त मूर्ख लालाओं से ज्यादा नुकसान हुआ है और दोनों के बीच में पिसे हैं ऐसे हजारों लोग, जो चैनलों में सिर्फ नौकरी करने के लिहाज से काम करते रहे हैं। जब तक अतिरिक्त मूर्ख लाला को समझ में आता तब तक हो अतिरिक्त होशियार पत्रकार और उसके साथियों के आगे लुट चुका होता है और उस जंजाल से निकलने की जब वो कोशिश करता है तो दो से तीन सौ उन निरीह लोगों पर गाज गिरती है जो एम्प्लॉयी के रूप में वहां काम कर रहे होते हैं। ऐसा एक बार नहीं कई बार हो चुका है।

टीवीआई’, ‘वीओआई... कुछ हद तक लाइव इंडिया जाने कितने ऐसे नाम हैं, जो वीर गति को प्राप्त हुए है और जिनसे मिले जख्म ताजिंदगी वहां काम करने वालों का पीछा नहीं छोड़ेंगे। बंद हुए कई अखबारों में भी ऐसे ही हालातों का वहां के कर्मचारियों को सामना करना पड़ा है और ये सिलसिला अब भी जारी है। 

अब जब भी किसी मित्र या जूनियर का फोन आता है और नए चैनल और नए अखबार शुरू किए जाने की जानकारी मिलती है। तो ऐसा लगता है कि फिर एक नया क्रम और उपक्रम होगा। कुछ और लोगों का भविष्य दांव पर होगा। कुछ और लोग अपनी लगी नौकरियां छोड़कर ज्यादा की उम्मीद में आएंगे और अपना वर्तमान भी गवाएंगे। हम जिस पेशे में रहे हैं जहां से हमें रोजी रोटी मिली है जहां से देश और समाज में हमारा विस्तार हुआ है वो और बेहतर हो ये भला कौन नहीं चाहेगा, लेकिन बेहतर माहौल की तरफ हम बढ़ते हुए नजर नहीं आ रहे हैं ये एक कड़वा सच है।

करोड़ों बेरोजगारों की फौज वाले इस देश में काम करने वाले 'मीडिया मजदूरों' की एक लंबी फौज पर अलग-अलग कारणों से बेरोजगारी का खतरा मंडरा रहा है, चाहे वो किसी पद पर ही क्यों न हों। हां धन बल पर पत्रकारिता के उच्च पदों पर बैठे गैर पत्रकारों और उनकी परिक्रमा करने वाले परजीवी पत्रकारों की बात इससे थोड़ी अलग है। जब तक उनका जादू चल रहा है वो तब तक खुद को खुशनसीब समझ सकते हैं। 

एक समस्या विश्वसनीयता की आती है आपने खेत खाए गधा और मार खाए जो रहा वाली कहावत जरूर सुनी होगी। मीडिया एक हिस्से के काम काज और कुछ लोगों के अनुभवों से सारे लोगों को जोड़कर देखा जाता है। दिल्ली के अलावा दिल्ली से बाहर काम कर रहे पत्रकारों से बातचीत के दौरान विश्वसनीयता के सवालों के सामने डगमगाते हुए उनके आत्मविश्वास से अक्सर सामना होता है। ऐसा लगता है कि उनके सामने कोई रास्ता नजर आता तो वो फौरन उस पर चल पड़ते। पत्रकारिता को लेकर अविश्वसनीयता का माहौल तकरीबन पूरे देश के जनमानस में है और जौ के साथ घून भी पिस रहा है यानी अच्छे, कर्मठ और जुनूनी पत्रकार भी इसी धारणा की जद में आ जाते हैं। 

एनडीटीवी समेत आखिरी सांसे लेते चैनलों की लिस्ट लंबी होती जा रही है। इनमें से कई चैनलों में तीसरे-चौथे महीने भी सैलरी नहीं आ रही है। कब, क्या हो जाए कुछ पता नहीं। सोशल मीडिया के बोलबाला वाले इस दौर में 20 साल की उम्र की हो चुकी टीवी इंडस्ट्री की जो रंगत दिखाई पड़ रही है उसमें ये साफ नजर आ रहा है कि रोजी रोटी के लिए अगर आप इस फील्ड में आते हैं तो आपको खुद से बार-बार सवाल करना होगा कि आप कहां जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं? देश और सामाजिक मुद्दों को उठाने वाली मिशन पत्रकारिता की बात तो काफी पीछे जा चुकी है। चंद चमकते चेहरों की चमक ध्यान में रखकर मीडिया में रोजगार तलाशने की बात में भी दम नहीं है। सोचना बस इतना है कि जहां, जिस दिशा में आपको बढ़ना है उसे लेकर कहां तक पहुंच पाएंगे और आपके परिवार के नौनिहाल निहाल होंगे या निढाल।

22 साल के अनुभवों के बाद मैं एक नतीजे पर तो पहुंचा हूं कि अगर आप देश, समाज और इंसानियत के लिए कुछ करने की भावना रखते हैं तो मीडिया में इसके लिए बहुत कम संभावनाएं हैं। सरकार की तरफ झुका हुआ आज का मीडिया सरोकार से कोसों दूर नजर आता है। जाहिर तौर पर सत्ता जो मीडिया से चाहती है वो करा लेती है और चैनल को चलाने की मजबूरी में चैनल के कर्ता धर्ता सरकार के दबाव के आगे झुकते हुए नजर आते हैं। हां कई ऐसे मामले भी होते हैं जिसमें मीडिया सरोकार के साथ खड़ी दिखाई देती है मसलन यूपी के आरोपी विधायक के मसले को पूरा मीडिया जोर शोर से उठा रहा है। इनमें से वो चैनल भी हैं जिन पर सरकार के टोन में खबरें चलाने के आरोप हैं। 

जिंदगी सिर्फ और सिर्फ उम्मीद का नाम है और हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। मेरे सुझाव मीडिया में आने वालों से सिर्फ इतना है कि अगर आपको लगता है कि आप मीडिया के लिए ही बने हैं और इसके सूरतेहाल में सरवाइव कर सकते हैं तो आप मीडिया में जरूर आएं, लेकिन अपने एक बैकअप के साथ वो बैकअप आपके घर का बिजनेस हो, आपकी पत्नी की नौकरी हो या कुछ और। एक बात और मीडिया में समय समय पर मिले अनुभवों से विश्लेषण जरूर करते रहें कि मीडिया में आपका रहना कितना फायदेमंद है आपके परिवार के भविष्य के लिए कितना सुरक्षित है?

(लेखक चैनल वन के पूर्व कार्यकारी संपादक, ईवेंट्स एंड प्लानिंग रहे हैं। ईवेट जर्नलिज्म की खुद की बनाई राह पर काम कर रहे हैं। हिन्दुस्तान, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, इंडिया टीवी, लाइव इंडिया, कोबरापोस्ट, समाचार प्लस में काम कर चुके हैं। पत्रकारों की संस्था प्रेस फाउंडेशन ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय संयोजक की भी जिम्मेदारी संभाली है।)  

 

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