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'#Metoo: न्याय के लिए वक्त पर बोलो, तभी निकलेगा सार्थक मतलब'

मैं ठहर गई, वो गुजर गया, वो क्या गुजरा, सब ठहर गया..! हमें नहीं पता...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago

अजय शुक्ल

प्रधान संपादक, आईटीवी नेटवर्क ।।

#Metoo सकरी गलियों से कुछ पाने की चाह!

मैं ठहर गई, वो गुजर गया, वो क्या गुजरा, सब ठहर गया..! हमें नहीं पता यह पंक्तियां किसने लिखी हैं मगर काफी कुछ बता रही हैं। मी-टू के शोर के बीच हम सुबह से परेशान थे कि क्या लिखें? पक्ष में या विपक्ष में या तटस्थ रहें। हमने फैसला किया कि जो सही है वही लिखेंगे चाहे किसी को अच्छा लगे या खराब। हमने अपने छात्र जीवन, पत्रकारिता, वकालत और सामाजिक कार्यों के दौरान जो देखा वह मी-टू कैंपेन को एक आश्चर्य के तौर पर नजर आया। हमें लगा यह सकरी गलियों के रास्ते कुछ पाने की चाहत का नतीजा मात्र है। निश्चित रूप से कुछ मामले ऐसे भी मिले जिनमें कह सकते हैं कि यौन संतुष्टि पाने के लिए कुछ लोगों ने प्रयास किए मगर यह पूर्ण सत्य नहीं है। बहुत ही कम मामले ऐसे सामने आए, जहां किसी बड़े ने बगैर दूसरे की मर्जी के किसी के साथ आलिंगन किया हो। ऊपर लिखी पंक्तियां स्पष्ट करती हैं कि किसी चाहत में कोई ठहरा तो कोई गुजरा..फिर क्या हुआ वही जाने।

कार्यक्षेत्र में कुछ अधिक पाने की चाहत वाले या वाली तमाम लोग उन रास्तों को अख्तियार करते हैं जिनको हम न गलत कह सकते हैं और न सही। कई बार यह दोनों की ‘बायोलॉजिकल नीड’ होती है, तो कई बार दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षण का शिकार होते हैं। कई बार सिर्फ स्वार्थ साधने का साधन मात्र। अब यह देखना पड़ेगा कि किसने क्या साधने की कोशिश की। यह भी शाश्वत सत्य है कि प्यार की कोई उम्र नहीं होती मगर यह स्वार्थ साधने या यौन संबंधों को स्थापित करने का बहाना मात्र न हो। हमारी संस्कृति में प्यार को बेहतरीन तरीके से समझाया गया है। त्याग और समर्पण को प्यार कहते हैं। एक दूसरे के हित-अहित को लेकर चिंतित होने को प्यार कहते हैं। सिर्फ शारीरिक मिलन प्यार नहीं हो सकता, यह एक भूख है जो कभी नहीं मिटती। ऐसे भूखे आदमी या औरत, बार बार यह सुख हासिल करने की कोशिश करते हैं मगर वही नहीं मिलता। कुछ पलों के बाद दोनों अपने कपड़े बटोरते नजर आते हैं बगैर कुछ हासिल किए। कई बार इसमें स्वार्थ जरूर पूरा हो जाता है मगर सुख नहीं। 

अब सवाल यह है कि मी-टू कैंपेन की आड़ में कहीं हम एक-दूसरे से बदला लेने की नियत से तो वह पल सार्वजनिक नहीं कर रहे जो कभी किसी स्वार्थवश बिताए थे? जब स्वार्थ उस हद तक पूरा नहीं हो सका जिसकी दूसरे ने उम्मीद की थी तो यह मी-टू का हिस्सा हो गया। इस तरह की कैंपेन को तब सार्थक और सही माना जाएगा, जब पीड़ित पुरुष या महिला यह भी बताये कि उसके साथ दूसरे ने अश्लील व्यवहार किया तो उसने इस पर क्या कदम उठाये। क्या उसने किसी विधिक या व्यवस्थागत संस्था से शिकायत की। अगर नहीं तो फिर सालों गुजरने के बाद यह सवाल क्यों? कहीं यह किसी कुंठा का विषय तो नहीं है? क्या यौन शोषण सिर्फ महिलाओं का ही होता है पुरुष का नहीं? अंतरंगता निश्चित रूप से एक विश्वास होता है। वह विश्वास जिसको दोनों ही पक्ष किसी के समक्ष सार्वजनिक नहीं कर करते। हर कोई पति-पत्नी और प्रेमियों के अंतरंग संबंधों को समझते हैं मगर क्या कभी किसी संस्कारित व्यक्ति ने उन पलों को सार्वजनिक किया है? अगर नहीं तो फिर दूसरा विश्वास को कैसे तोड़ सकता है। अगर वह उन पलों को सार्वजनिक करके किसी दूसरे को हानि पहुंचाता है तो यह कटु सत्य है कि उन पलों को दूसरे ने स्वार्थ के लिए जिया था न कि प्यार में। जब स्वार्थ पूरा नहीं हुआ या वक्त निकल गया तो वह बदला लेने पर आमादा हो गया। यह मी-टू कैंपेन नहीं हो सकती। 

एक सच यह भी है कि जब कोई वास्तव में किसी की दुर्भावना का शिकार होता है तो वह तत्काल अपने मित्रों, परिजनों और शुभचिंतकों से जिक्र करता है। सलाह मशविरा करके ऐसा कदम उठाता है कि भविष्य में वह शिकार न हो। कई बार कुछ वक्त लग जाता है जो जायज माना जा सकता है मगर साल दर साल और दशकों बाद कोई सार्वजनिक रूप से कहे कि किसी ने उसके साथ अश्लील हरकत करने की कोशिश की थी या उसका यौन शोषण किया था तो यह महज स्वार्थ साधने के अलावा कुछ नहीं। ऐसे आरोप लगाने वाले खुद को चर्चा में लाकर क्रांतिकारी बताना चाहते हैं जबकि वही सबसे बड़े कायर हैं क्योंकि हिम्मत थी और सच्चे थे, तो उसी वक्त विरोध करते। भारतीय कानून सदैव से महिलाओं के पक्ष में बना है। आज भी किसी महिला द्वारा पुरुष के यौन उत्पीड़न के मामले में कार्रवाई की समुचित व्यवस्था नहीं है जबकि महिला के यौन उत्पीड़न के लिए तमाम तरह की व्यवस्थायें हैं। यही वजह है कि इस तरह की कैंपेन को चटखारे लेकर सुना जाता है और उन पर जोक्स बन जाते हैं मगर सार्थक कुछ नहीं होता है।

हम मी-टू कैंपेन का स्वागत करते हैं मगर तब जब किसी महिला के साथ कोई घटना या उसकी कोशिश हो और वह तुरंत सार्वजनिक मंच पर आकर कहे कि हमारे साथ यह हुआ है। वह इसके लिए पुलिस, कार्यालय में बनी महिला यौन उत्पीड़न निरोधक कमेटी तथा महिला आयोग जैसी किसी संस्था में शिकायत करे। वह साहस दिखाये, न कि इस डर से कि उसका सीनियर उसको नुकसान पहुंचा देगा, चुप्पी साधे रहे। जब महिलाएं और पुरुष दोनों ही घटना को लेकर तत्काल सामने आएंगे तभी कोई हल निकलेगा, नहीं तो ऐसी कैंपेन एक ड्रामा बनकर रह जाएंगी। सच यह है कि यौन उत्पीड़न की घटनाएं न्यायपालिका, सियासत, व्यवसाय से लेकर निचले स्तर तक रोजाना होती हैं मगर उनमें स्वार्थ साधने के लिए कहीं न कहीं समर्पण कर देने का भी भाव होता है। सच बोलो और ठोक कर बोलो। वक्त पर बोलो, किसी स्वार्थ में नहीं बल्कि न्याय के लिए बोलो, तभी मी-टू जैसी कैंपेन का कोई सार्थक मतलब निकलेगा, नहीं तो कुछ कथित क्रांतिक्रारी महिलाएं इसकी आड़ में भी अपने स्वार्थ साधती मिल जाएंगी।

 

 

 


टैग्स अजय शुक्ल पत्रकार मीडिया मीटू
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