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मीडिया की ख़ामोशी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है

अख़बारों का काम ख़बरों और विचारों को जन मानस तक पहुंचाना होता है...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago

फ़िरदौस ख़ान

वरिष्ठ पत्रकार ।।

नेशनल हेराल्ड से उम्मीद जगी

अख़बारों का काम ख़बरों और विचारों को जन मानस तक पहुंचाना होता है। सूचनाओं के इसी प्रसार-प्रचार को पत्रकारिता कहा जाता है। किसी ज़माने में मुनादी के ज़रिये हुकमरान अपनी बात अवाम तक पहुंचाते थे। लोकगीतों के ज़रिये भी हुकुमत के फ़ैसलों की ख़बरें अवाम तक पहुंचाई जाती थीं। वक़्त के साथ-साथ सूचनाओं के आदान-प्रदान के तरीक़ों में भी बदलाव आया।

पहले जो काम मुनादी के ज़रिये हुआ करते थे, अब उन्हें अख़बार, पत्रिकाएं, रेडियो, दूरदर्शन और वेब साइट्स अंजाम दे रही हैं। पत्रकारिता का मक़सद जनमानस को न सिर्फ़ नित नई सूचनाओं से अवगत कराना है, बल्कि देश-दुनिया में घट रही घटनाओं से उन पर क्या असर होगा, यह बताना भी है।  लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि जिस तरह पिछले चंद सालों में कुछ मीडिया घरानों ने पत्रकारिता के तमाम क़ायदों को ताख़ पर रखकर कारोबारीराह अपना ली है, उससे मीडिया के प्रति जनमानस का भरोसा कम हुआ है। ऐसा नहीं है कि सभी अख़बार या ख़बरिया चैनल बिकाऊ हैं। कुछ अपवाद भी हैं।

जिस देश का मीडिया बिकाऊ होगा, उस देश के लोगों की ज़िन्दगी आसान नहीं होगी। पिछले कई साल से देश में अराजकता का माहौल बढ़ा है। जिस तरह से सरेआम लोगों पर हमला करके उनकी हत्याएं की जा रही हैं, अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाले दलितों, किसानों पर गोलियां बरसाई जा रही हैं, ऐसे में मीडिया की ख़ामोशी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है। अराजकता भरे दौर में ऐसे अख़बारों की ज़रूरत महसूस की जा रही है, जो सच्चे हों, जिन पर अवाम भरोसा कर सके, जो चंद सिक्कों के लिए अपना ज़मीर न बेचें, जो जनमानस को गुमराह न करें।

ऐसे में कांग्रेस के अख़बार नेशनल हेराल्ड के प्रकाशन का शुरू होना, ख़ुशनुमा अहसास है। गुज़श्ता 12 जून को कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में इसके संस्मरणीय संस्करण का लोकार्पण किया गया। यह अख़बार दिल्ली से साप्ताहिक प्रकाशित किया जाएगा। इस मौक़े पर राहुल गांधी ने कहा कि मौजूदा वक़्त में जो लोग सच्चाई के साथ हैं, उन्हें दरकिनार किया जा रहा है। दलितों को मारा जा रहा है, अल्पसंख्यकों को सताया जा रहा है और मीडिया को धमकाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि नेशनल हेराल्ड के एडिटर एक दिन मेरे पास आए। मैंने उनसे कहा, अगर आपको किसी दिन कांग्रेस पार्टी या मेरे ख़िलाफ़ कुछ लिखना हो, तो बिना ख़ौफ़ के लिखें। ये वो चीज़ है, जो हम नेशनल हेराल्ड से चाहते हैं। सच्चाई से डरने की ज़रूरत नहीं है और ना चुप रहने की।

ग़ौरतलब है कि जवाहरलाल नेहरू और स्वतंत्रता सेनानियों ने लखनऊ से 9 सितंबर, 1938 को नेशनल हेराल्ड नाम से एक अख़बार शुरू किया था। उस वक़्त यह अख़बार जनमानस की आवाज़ बना और जंगे-आज़ादी में इसने अहम किरदार अदा किया। शुरुआती दौर में जवाहरलाल नेहरू ही इसके संपादक थे। प्रधानमंत्री बनने तक वे हेराल्ड बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के चेयरमैन भी रहे। उन्होंने अख़बार के अंतरराष्ट्रीय संवाददाता के तौर पर भी काम किया। अख़बार लोकप्रिय हुआ। साल 1968 में दिल्ली से इसके संस्करण का प्रकाशन शुरू हो गया। हिंदी में नवजीवन और उर्दू में क़ौमी आवाज़ के नाम से इसके संस्करण प्रकाशित होने लगे। अख़बार को कई बार बुरे दौर से गुज़रना पड़ा और तीन बार इसका प्रकाशन बंद किया गया। पहली बार यह अंग्रेज़ी शासनकाल में उस वक़्त बंद हुआ, जब अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय अख़बारों के ख़िलाफ़ दमनकारी रवैया अपनाया था। नतीजतन, 1942 से 1945 तक नेशनल हेराल्ड को अपना प्रकाशन बंद करना पड़ा। फिर साल 1945 में अख़बार का प्रकाशन शुरू किया गया। साल 1946 में फ़िरोज़ गांधी को नेशनल हेराल्ड का प्रबंध निदेशक का कार्यभार सौंपा गया। वे 1950 तक उन्होंने इसकी ज़िम्मेदारी संभाली। इस दौरान अख़बार की माली हालत में भी कुछ सुधार हुआ, लेकिन आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार के बाद अख़बार को दो साल के लिए बंद कर दिया गया। कुछ वक़्त बाद अख़बार शुरू हुआ, लेकिन साल 1986 में एक बार फिर से इस पर संकट के बादल मंडराने लगे, लेकिन राजीव गांधी के दख़ल की वजह से इसका प्रकाशन होता रहा। मगर माली हालत ख़राब होने की वजह से अप्रैल 2008 में इसे बंद कर दिया गया।

क़ाबिले-ग़ौर है कि असोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड कंपनी (एजेएल ) के तहत नेशनल हेराल्ड का प्रकाशन किया जाता था, जो एक सेक्शन-25 कंपनी थी। इस तरह की कंपनियों का मक़सद कला-साहित्य आदि को प्रोत्साहित करना होता है। मुनाफ़ा कमाने के लिए इनका इस्तेमाल नहीं किया जाता। मुनाफ़ा न होने के बावजूद यह कंपनी काफ़ी अरसे तक नुक़सान में चलती रही। कांग्रेस ने असोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड कंपनी को चलाए रखने के लिए कई साल तक बिना ब्याज़ के उसे क़र्ज़  दिया। मार्च 2010 तक कंपनी को दिया गया क़र्ज़ 89.67 करोड़ रुपये हो गया। बताया जाता है कि कंपनी के पास दिल्ली और मुंबई समेत कई शहरों में रीयल एस्टेट संपत्तियां हैं। इसके बावजूद कंपनी ने कांग्रेस का क़र्ज़ नहीं चुकाया।

पार्टी के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा को 22 मार्च 2002 को कंपनी के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। इसके कई साल बाद 23 नवंबर 2010 को यंग इंडियन प्राइवेट लिमिटेड नाम की सेक्शन-25 कंपनी सामने आई। गांधी परिवार के क़रीबी सुमन दुबे और सैम पित्रोदा जैसे लोग इसके निदेशक थे। अगले महीने 13 दिसंबर 2010 को राहुल गांधी को इस कंपनी का निदेशक बनाया गया। अगले ही साल 22 जनवरी 2011 को सोनिया गांधी भी यंग इंडिया के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में शामिल हो गईं। उनके साथ-साथ  मोतीलाल वोरा और कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य ऑस्कर फ़र्नांडीज भी यंग इंडियन के बोर्ड में शामिल किए गए। इस कंपनी के 38-38 फ़ीसद शेयरों पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की हिस्सेदारी है, जबकि के 24 फ़ीसद शेयर मोतीलाल वोरा और ऑस्कर फर्नांडीज के नाम हैं। दिसंबर 2010 में असोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड कंपनी के प्रबंधकों ने 90 करोड़ रुपये के क़र्ज़ बदले पूरी कंपनी यंग इंडियन के हवाले कर दी। यंग इंडियन ने इस अधिग्रहण के लिए 50 लाख रुपये का भुगतान किया। इस तरह यह कंपनी यंग इंडियन की सहायक कंपनी बन गई।

बहरहाल, कांग्रेस ने नेशनल हेराल्ड शुरू करके सराहनीय काम किया है। पिछले कुछ अरसे से ऐसे ही अख़बार की ज़रूरत महसूस की जा रही थी। आज का अख़बार कल का साहित्य है, इतिहास है। अख़बार दुनिया और समाज का आईना हैं। देश-दुनिया में में जो घट रहा है, वह सब सूचना माध्यमों के ज़रिये जन-जन तक पहुंच रहा है। आज के अख़बार-पत्रिकाएं भविष्य में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ साहिब होंगे, क्योंकि इनके ज़रिये ही आने वाली पीढ़ियां आज के हालात के बारे में जान पाएंगी। इसके ज़रिये ही लोगों को समाज की उस सच्चाई का पता चलता है, जिसका अनुभव उसे ख़ुद नहीं हुआ है। साथ ही उस समाज की संस्कृति और सभ्यता का भी पता चलता है। पत्रकारिता सरकार और जनता के बीच सेतु का काम करती है। अख़बारों के ज़रिये अवाम को सरकार की नीतियों और उसके कार्यों का पता चलता है। ठीक इसी तरह अख़बार जनमानस की बुनियादी ज़रूरतों, समस्याओं और उनकी आवाज़ को सरकार तक पहुंचाने का काम करते हैं।

यह बात समझनी होगी कि मीडिया का काम सरकारया वर्गविशेष का गुणगान करना नहीं है। जहां सरकार सही है, वहां सरकार की सराहना की जानी चाहिए, लेकिन जब सत्ताधारी लोग तानाशाही रवैया अपनाते हुए जनता पर क़हर बरपाने लगें, तो उसका पुरज़ोर विरोध होना ही चाहिए।  मीडिया को जनता की आवाज़ बनना चाहिए, न कि सरकार का भोंपू।

बहरहाल, नेशनल हेराल्ड एक सियासी पार्टी का अख़बार है, इसलिए इसे अवाम में अपनी साख बनाए रखने के लिए फूंक-फूंक कर क़दम रखना होगा। इसके हिन्दी, उर्दू व अन्य भाषाओं के संस्करण भी प्रकाशित होने चाहिए।

(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)


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