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अभिव्यक्ति पर बंदिशों की नई बहस
विश्वविद्यालय के 10 नये छात्रों का प्रवेश फेसबुक की आपत्तिजनक प्रविष्टियों के कारण रद्द कर दिया गया...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago
‘भारत में 1975 में लागू की गई
प्रेस सेंसरशिप के विरुद्ध आवाज उठाने के कारण सैकड़ों पत्रकारों-लेखकों ने कारावास
भोगा था। दरअसल, इस प्रकार के तमाम प्रतिबंधों के मामले में
मुख्य प्रश्न हमेशा ही नीयत को लेकर किया जाता रहा है और आने वाले समय में हम ऐसे
विवादों के साक्षी बनते रहेंगे।’ हिंदी अखबार ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के डिजिटल विंग में छपे अपने आलेख
के जरिए ये कहा पत्रकार हर्षदेव ने। उनका पूरा आलेख आप यहां पढ़ सकते हैं-
अभिव्यक्ति पर बंदिशों की नई बहस
विश्वविद्यालय के 10 नये छात्रों का प्रवेश फेसबुक की आपत्तिजनक प्रविष्टियों के कारण रद्द कर दिया गया। इस फैसले ने सोशल मीडिया के उपयोग की निजता और अभिव्यक्ति के अधिकार को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। शायद यह पहला फैसला है, जिसका आधार सोशल मीडिया पर लेखन बना है। वि.वि. ने पाया कि उनकी प्रविष्टियां कुछ खास समुदायों, उत्पीड़ितों के प्रति पूर्वाग्रह से प्रेरित, नफरतभरी और असंवेदनशील थीं। निर्णय से यह प्रश्न उठा कि अभिव्यक्ति के लिहाज से क्या सार्वजनिक है और क्या व्यक्तिगत है? एक और सवाल कि धारणाओं और विचारों की वे कौन-सी सीमाएं हैं, जिनको लांघने का अर्थ सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन माना जा सकता है? इनके वर्गीकरण का कोई आधार हो सकता है?
कानूनन कई प्रकार का लेखन साइबर अपराध की श्रेणी में आता है। ऐसे विचार जो इंटरनेट/कंप्यूटर के जरिये समाज की समरसता को भंग करने, परस्पर द्वेष पैदा करने, बाल-पोर्न को बढ़ावा देने, धोखाधड़ी-गबन या किसी की निजता का उल्लंघन करते हों, कानून की परिधि में आते हैं। लेकिन यह पहली बार हुआ है कि इस तरह के किसी पोस्ट के कारण भावी छात्रों को प्रवेश से वंचित कर दिया गया हो। जिन छात्रों को दंडित किया गया है, उनका वॉट्सएप पर एक समूह था, जिसमें वे संवाद करते थे। उन्होंने ऐसे लोगों व समुदायों के बारे में टिप्पणियां की थीं, जो किसी विशेष वर्ग के बारे में थे या जिनके साथ ज्यादतियां हुई थीं। वि.वि. ने इसे असंवेदनशीलता माना और निर्णय का आधार बनाया।
इस फैसले के बारे में वि.वि. का कहना था कि ऐसी सोच के विद्यार्थी विविधता के उनके वातावरण को ध्वस्त कर सकते हैं। सारी बहस के केन्द्र में यही स्पष्टीकरण है जिसे लेकर सोशल मीडिया की प्रकृति, वैचारिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी जैसे सवाल पूछे जा रहे हैं।
अपने देश या विश्व में जनसंचार माध्यम के इस सामाजिक मंच पर व्यक्त सोच के कारण छात्रों पर पाबंदी लगाने का ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। लेकिन ऐसी मिसालें हैं जो राजनीतिक व सामाजिक असहनशीलता के कारण हिंसक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आती रही हैं। ऐसे कई मौकों पर केन्द्र या राज्य सरकारों की ओर से इंटरनेट सुविधा पर रोक लगाई गई है। कश्मीर में तो यह जैसे निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है ही, गुजरात, महाराष्ट्र, उ.प्र., पश्चिम बंगाल, म.प्र. आदि स्थानों पर भी संवेदनशील मौकों पर प्रतिबंधात्मक या दंडात्मक कार्रवाइयां सामने आती रही हैं। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो एक कार्टूनिस्ट के व्यंग्य चित्र बनाकर फेसबुक पर डालने से इतनी क्रुद्ध हो गईं कि उन्होंने उसे जेल ही भिजवा दिया। कई घटनाएं गुजरात और कुछ दूसरे प्रांतों में भी सामने आती रही हैं। मुंबई में दो छात्राओं को उस समय शिवसेना का कोपभाजन बनना पड़ा था, जब उन्होंने बाल ठाकरे के निधन के शोक में बंद रखे जाने को फिजूल की बात कह दिया था।
चीन सोशल मीडिया के मंच पर अपने नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी को सबसे अधिक कठोरता के साथ अंकुश लगाने वाले देशों में अव्वल रहा है। उसने विशेष अदालतें बना रखी हैं जो इस तरह के कथित ‘अपराधों’ पर अविलंब फैसला सुनाती हैं। जिस 12 मार्च को दुनियाभर में साइबर सेंसरशिप के विरोध में हर साल प्रदर्शन और रैलियां निकाली जाती हैं, उस दिन चीन में सेंसरशिप के समर्थन में सरकार की ओर से विभिन्न आयोजन किए जाते हैं। उनमें भाषणों के अलावा गीत सुनाए जाते हैं। हालांकि पिछले दशक में सरकार की नीतियां जितनी सख्त थीं, उनमें कहने भर का लचीलापन आया है। यूरोप के अधिकतर देशों के स्कूलों में इंटरनेट सबके लिए, खासतौर पर विद्यार्थियों के लिए सुलभ नहीं है। अनेक प्रतिबंधों और शर्तों के साथ ही उसका उपयोग किया जा सकता है। वहां के शिक्षक वर्ग की ओर से लगातार इसके खिलाफ आवाज उठाई जाती रही है। नेट की पाबंदी और आजादी के इस मुद्दे पर चलने वाली बहस में पोर्न को लेकर लोग असमंजस में या निरुत्तर हो जाते हैं। नए युग में कॉरपोरेट सेंसरशिप एक नया कदम है जो उनके कारोबार, नीतियों या गोपनीय फैसलों की सुरक्षा के लिहाज से अपनाया जाने लगा है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या सेंसरशिप का विवाद ईसा से भी 399 साल पहले का है, जब यूनान के दार्शनिक सुकरात ने तब के शासन द्वारा उनके विचारों पर पाबंदी के खिलाफ आवाज उठाई थी और अंतत: उन्होंने सिद्धांतों की खातिर विषपान करना श्रेयस्कर समझा था। भारत में 1975 में लागू की गई प्रेस सेंसरशिप के विरुद्ध आवाज उठाने के कारण सैकड़ों पत्रकारों-लेखकों ने कारावास भोगा था। दरअसल, इस प्रकार के तमाम प्रतिबंधों के मामले में मुख्य प्रश्न हमेशा ही नीयत को लेकर किया जाता रहा है और आने वाले समय में हम ऐसे विवादों के साक्षी बनते रहेंगे।
(साभार: दैनिक ट्रिब्यून)
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