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अखिलेश यादव के लिए मुश्किल है 'साइकिल' चुनाव चिन्ह, क्यों, बताया वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने
राजेश बादल एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर, राज्यसभा टीवी ।। चुनावचिन्ह ,धर्म और चुनाव आयोग
समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago
राजेश बादल
एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर,
राज्यसभा टीवी ।।
चुनावचिन्ह ,धर्म और चुनाव आयोगदरअसल हमारे संविधान के कुछ प्रावधान प्याज के छिलकों की तरह हैं। एक स्तर पर एक बात कुछ कहती नज़र आती है तो दूसरे स्थान पर दूसरा स्तर उसको रोकता सा लगता है। दिलचस्प यह है कि आज़ादी के बाद अदालतों में इसकी व्याख्या भी अपने अपने ढंग से की जाती रही है। अनुभव के आधार पर यह बात मैं भरोसे से कह सकता हूं। असहमति का आपका अधिकार तो सुरक्षित है ही।
समाजवादी सुप्रीमो मुलायम सिंह चुनाव आयोग से कह रहे हैं कि उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह साइकिल किसी को न दिया जाए। सवाल यह है कि क्या मुलायम सिंह मान चुके हैं कि पार्टी का विभाजन हो चुका है? तकनीकी तौर पर तो मुलायम सिंह दोनों धड़ों के लिए सर्वमान्य स्थिति में हैं। अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव का निष्कासन रद्द करने का एलान खुद मुलायम सिंह कर चुके हैं। ऐसे में चुनाव आयोग से उनका यह कहना बेमानी है कि रामगोपाल यादव को निकाल दिया गया है।
पार्टी का एक धड़ा कुछ पदाधिकारियों के ख़िलाफ़ है लेकिन नेतृत्व में पूरी आस्था व्यक्त करता है। यह धड़ा उन पदाधिकारियों को हटा देता है तो सौ फ़ीसदी यह मामला पार्टी के आंतरिक अनुशासन का है। हां, कुछ लोग पार्टी छोड़कर अलग चुनाव लड़ने का फ़ैसला करते हैं तो उन्हें आयोग के निर्धारित प्रतीकों में से कोई चुनाव चिह्न लेना होगा। अलग पार्टी की मान्यता मिलने पर ही वो अपने चिह्न का उपयोग कर सकेंगे। मगर उसके लिए तय मतों का प्रतिशत अलग हुए धड़े को हासिल करना होगा।
राजनीतिक शतरंज के माहिर खिलाड़ी मुलायमसिंह क्या इतनी सी बात नहीं समझ रहे हैं? अगर समझ रहे हैं तो क्या यह पिता-पुत्र के बीच सियासी अखाड़े में मैत्री कुश्ती है? क्या उनका इरादा यह है कि अखिलेश के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी का ताज़ा और सेहतमंद अवतार सामने आए और दागी चेहरों तथा दबंगई-राजनीति करने वालों का स्वाभाविक विलोप उत्तरप्रदेश के राजनीतिक मंच से हो जाए। ऐसे में मुलायम को अपने जीवनकाल में शिव की तरह पार्टी हलाहल अपने कण्ठ में रखना होगा।
जानकार अतीत में इंदिरागांधी के समय हुए चुनाव चिह्न विवाद का हवाला देते हैं , लेकिन याद रखना होगा कि कांग्रेस से इंदिराजी को निकाला गया था। बाद में उनके समर्थक बाक़ायदा पार्टी छोड़कर आए थे। इस मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ है।
तो अब चुनाव आयोग क्या करे? हक़ीक़त तो यही है आयोग को संविधान ने कोई अधिकार नहीं दिया है, जिससे वो किसी मान्यता प्राप्त दल से उसका प्रतीक छीन सके। इसके लिए पहले आयोग को पार्टी की मान्यता ही ख़त्म करनी होगी। अप्रैल 1991 में आयोग ने इस सिलसिले में एक स्पष्टीकरण भी दिया था। दिलचस्प है कि जन प्रतिनिधित्व क़ानून में किसी पार्टी से चुनाव चिह्न वापस लेने की कोई बात ही नहीं कही गई है। क़ानून की धारा -29 क इस बारे में कुछ खुलासा करती सी लगती है। लेकिन चुनाव चिह्न के बारे में यह भी ख़ामोश है।
लब्बोलुआब यह कि आयोग को अपने दस्तावेज़ खंगालने होंगे कि वाकई उसे चुनाव चिह्न छीनने की याचिका पर विचार का हक़ भी है या नहीं?
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