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नेहरू द्वारा भ्रष्टाचार को लेकर अपनाए गए तेवरों को भी याद कीजिए: आलोक मेहता

हर साल की तरह इस 14 नवंबर को भी पंडित जवाहरलाल नेहरू का स्मरण किया गया...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago

आलोक मेहता

वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व संपादक, आउटलुक (हिंदी) ।।

सत्ता की गंगा में धुलते पाप

हर साल की तरह इस 14 नवंबर को भी पंडित जवाहरलाल नेहरू का स्मरण किया गया। इस बार भी नेहरू की समाधि और देशभर में उनसे जुड़े संस्थानों एवं संसद भवन में लगे चित्रों पर पुष्पमालाएं अर्पित की गईं। वर्तमान राजनीति में नेहरू के सत्ताकाल की गलतियों की भी बहुत याद दिलाई जा रही है। लेकिन नेहरू युग की सत्ता की राजनीति में भ्रष्टाचार को लेकर अपनाए जाने वाले तेवरों को भी याद किया जाना चाहिए।

आजादी के बाद भ्रष्टाचार की एक छोटी-सी घटना पर नेहरू की ही सबसे बड़ी कांग्रेस पार्टी के एक नेता शिवबहादुर सिंह पर जालसाजी और भ्रष्टाचार का एक गंभीर मामला दर्ज हुआ और निचली-ऊपरी अदालत में सुनवाई और सत्ता के सारे प्रभाव के बावजूद तीन वर्ष की जेल की सजा के दौरान ही उनकी मृत्यु भी हुई। अब तो कांग्रेस के ही दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेताओं को संभवतः यह जानकारी नहीं होगी कि देश के पहले चुनाव के समय ही विंध्य प्रदेश की एक चुनावी सभा में जब प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू के कान में किसी ने बताया कि इस विधानसभा क्षेत्र के उम्मीदवार शिवबहादुर सिंह पर भ्रष्टाचार का एक प्रकरण चल रहा है, तो नेहरू ने वहीं माइक से यह घोषणा कर दी कि यह हमारा उम्मीदवार नहीं होगा।

शिवबहादुर सिंह उस समय विंध्य प्रदेश के एक बड़े कांग्रेसी नेता माने जाते थे और मंत्री रह चुके थे। उन पर पन्ना के हीरों की खदानों से जुड़े एक मामले के दस्तावेजों में गड़बड़ी और लगभग 25 हजार रुपये की रिश्वत लेने का आरोप था। उस समय मध्य प्रदेश नहीं बना था। इस दृष्टि से विंध्य प्रदेश के प्रतिष्ठित जमींदार परिवार के सदस्य के नाते शिवबहादुर सिंह युवा काल से ही कांग्रेस से जुड़े हुए थे। लेकिन न तो प्रादेशिक नेताओं ने उनका साथ दिया और न ही नेहरू जैसे राष्ट्रीय नेता ने। भ्रष्टाचार पर ऐसी कठोर कार्रवाई का दूसरा उदाहरण कांग्रेस के इतिहास में मुश्किल से ही मिलता है। बाद में शिवबहादुर सिंह के पुत्र अर्जुन सिंह कांग्रेस के उपाध्यक्ष, मुख्यमंत्री, राज्यपाल भी रहे और आरोपों के घेरे में आने पर राजनीतिक संकट में भी फंसे। इसी तरह बहुचर्चित मूंदड़ा कांड में नेहरू के ही दामाद और श्रीमती इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी ने संसद में घोटाले के विरुद्ध जोरदार आवाज उठाई और मामला आगे बढ़ने पर नेहरू को अपने वित्त मंत्री को भी हटाना पड़ा।

श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में यों तो कई विवादास्पद और भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर मंत्री या मुख्यमंत्री हटते रहे लेकिन हाल ही में बिहार के ही एक पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने भी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारा है कि इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी के बड़े दबाव के कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया था। कुछ वर्षों बाद उन्होंने राजीव गांधी के सामने अपने ऊपर लगे आरोपों के स्पष्टीकरण दिए और अन्य राजनीतिक परिस्थितियों के कारण उन्हें फिर से मुख्यमंत्री पद मिल सका। कांग्रेस की तो परंपरा यह थी कि प्रदेशों में भ्रष्टाचार के आरोप सामने आने पर असंतुष्ट गुट न केवल पार्टी की बैठकों में, बल्कि सार्वजनिक मंचों या मीडिया के सामने अपने ही मुख्यमंत्री या उनके सहयोगियों के विरुद्ध बयान देने लगते थे।

1972-75 के दौरान मैंने स्वयं कांग्रेसी नेताओं के उन बयानों को लिखा और छापा था जिनमें मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल को अलीबाबा और चालीस चोरकी संज्ञा दी जाती थी। इसे गुटबाजी का भी एक स्वरूप माना जा सकता था। लेकिन तब भी पार्टी की ओर से कोई अनुशासन की कार्रवाई नहीं होती थी। वर्तमान दौर में कांग्रेस हो या भाजपा, जनता दल(यू.) अथवा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी- किसी भी मुख्यमंत्री और उसके साथी मंत्रियों अथवा केन्द्र में बैठे किसी नेता के विरुद्ध कोई सार्वजनिक बयान देखने को नहीं मिल सकता।

राजनीतिक दलों में अनुशासन के नाम पर पारदर्शिता न होने और भ्रष्टाचार का नासूर बढ़ते रहने से संपूर्ण व्यवस्था बदनाम होने लगती है। राजीव गांधी एक बड़ी ईमानदार छवि के साथ सत्ता में आए थे। लेकिन उनके ही सबसे प्रमुख सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह और करीबी रिश्तेदार अरुण नेहरू द्वारा बोफोर्स कांड का मामला उठाए जाने पर उन्हें सत्ता से हटना पड़ा। यह बात अलग है कि आज तक बोफोर्स कांड के मात्र 64 करोड़ रुपये के असली खाते का पता नहीं चल सका है। भाजपा सरकार मामले को फिर से खुलवा रही है। लगभग 25-30 वर्षों के दौरान जांच-पड़ताल के नाम पर ही दो-चार हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके होंगे। मनमोहन सिंह भी एक अच्छे अर्थशास्त्री और स्वच्छ छवि के नाम पर प्रधानमंत्री के रूप में उभरे थे लेकिन उनके 10 वर्षों के सत्ताकाल में आर्थिक गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार के मामले इतने अधिक उछले कि कांग्रेस पार्टी का लगभग सफाया हो गया। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि स्वयं मनमोहन सिंह या पार्टी के कुछ अन्य ईमानदार नेताओं ने पी. चिदंबरम अथवा अन्य मंत्रियों पर लगे गंभीर आरापों के विरुद्ध कभी खुलकर आवाज नहीं उठाई।

ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार के मामले केवल कांग्रेस नेताओं के ही उजागर हुए, जनता पार्टी के सत्ताकाल में भी कुछ मंत्रियों पर भ्रष्टाचार की शिकायतें सामने आने लगी थीं। मोरारजी देसाई ने तो शिकायतों पर मंत्रालय भी बदला और अधिक कड़ा रुख अपनाने के कारण देर-सबेर जनता पार्टी बिखरने लगी। प्रदेशों में भी कुछ मुख्यमंत्रियों पर आरोपों को लेकर विरोधियों से अधिक सत्ताधारी पार्टी के नेता ही आवाज उठाने लगे थे। जनसंघ-जनता पार्टी के मुख्यमंत्री वीरेन्द्र कुमार सकलेचा के विरुद्ध कुछ आरोप सामने आने पर देर-सबेर पार्टी ने बड़ी चतुराई से उन्हें पद छोड़ने के लिए बाध्य किया था। उनके उत्तराधिकारी के रूप में कैलाश जोशी को मुख्यमंत्री बनाया गया। कुशाभाऊ ठाकरे, सुन्दर सिंह भंडारी, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने अपनी ही पार्टी में गड़बड़ियां सामने आने पर कड़ी कार्रवाई के रुख अपनाए थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उसी परंपरा को निभा भी रहे हैं। इसलिए केन्द्र में उनकी सरकार के विरुद्ध अब तक भ्रष्टाचार का कोई प्रत्यक्ष मामला सामने नहीं आया है।

लेकिन विडंबना यह है कि सत्ता की राजनीति में कांग्रेस और भाजपा ही नहीं, अन्य दलों ने भी चुनावी समीकरण के लिए भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे नेताओं को शरण दी है। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश इसके ताजा उदाहरण हैं। कांग्रेस के जिन नेताओं पर बड़ी गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार के आरोप थे, उन्हें भी भाजपा ने शरण दे दी। हिमाचल में तो पुराने कांग्रेसी सुखराम भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की सजा तक भुगत चुके थे। उन्हें और उनके परिवार कि सदस्यों को चुनाव के ऐन पहले भाजपा में प्रतिष्ठित कर दिया गया। उत्तराखंड में विजय बहुगुणा और उनके मंत्रियों पर तो भूकंप राहत तक में गड़बड़ियों के गंभीर आरोप थे। लेकिन भाजपा की नाव पर सवार होते ही आरोपों का पुलिंदा संभवतः गंगा में प्रवाहित कर दिया गया। पूर्वोत्तर राज्यों में भी कई ऐसे नेताओं को शरण मिल गई जिन पर कांग्रेस के सत्ताकाल में गंभीर आरोप थे। बिहार में भी गठबंधन की जोड़तोड़ में ऐसे विवादास्पद नेता नीतीश और भाजपा की शरण में बैठे हुए हैं जिन पर गड़बड़ियों के आरोप रहे हैं।

सत्ता की राजनीति में यह खेल चल सकता है लेकिन लोकतंत्र का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि चुनाव के मैदान में भी ऐसे आरापों से घिरे विवादास्पद नेता बहुमत के बल पर विजयी भी हो जाते हैं। इस राजनीतिक सफलता के बाद उन्हें यह दावा करने में आसानी हो जाती है कि जनता की अदालत ने उन्हें अपराध मुक्त कर दिया है। दूसरी तरफ अदालतों में भ्रष्टाचार के मामले दशकों तक चलते रहते हैं।

बिहार में बहुचर्चित चारा कांड इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। निचली अदालत में लालू प्रसाद यादव को दोषी ठहराया जा चुका है और वह स्वयं चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित हो चुके हैं। लेकिन फिर भी उनके दमखम पर ही परिवार के सदस्यों अथवा साथियों को पिछले विधानसभा चुनावों में अच्छा-खासा जन समर्थन मिल गया। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी ईमानदार छवि के बल पर सत्ता में आई थीं। लेकिन शारदा चिटफंड कांड से जुड़े नेताओं के कारण विवादों में घिर गईं। लेकिन इसी कांड से जुड़े नेता मुकुल रॉय भाजपा की शरण में पहुंच गए। अब उनके विरुद्ध मामला शायद और धीमी गति से आगे चलता रहेगा। दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों में भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों के गंभीर आरोपों के बाद पुनः सत्ता में आना असंभव-सा होता है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश कहलाने के गौरव रखने वाले भारत को भी आने वाले वर्षों के दौरान कानून में ऐसे बदलाव करने होंगे जिससे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों और एक समय सीमा के अनुसार कानूनी कार्यवाही हो और आरोप सिद्ध होने की स्थिति में भविष्य में कभी सत्ता में पहुंचने के अवसर न मिल सकें। भले ही वे अपने अपराध या पाप धोने के लिए समाज और पार्टी के लिए सेवा करते रहें।

 

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