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स्टिंग, आरोप और सवाल: बदलते दौर में बदल रहे मायने
अंडरकवर जर्नलिज्म यानी स्टिंग ऑपरेशन को लेकर सवालों के सिलसिले बढ़ते जा रहे हैं...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 5 years ago
वरिष्ठ टीवी पत्रकार।।
अंडरकवर जर्नलिज्म यानी स्टिंग ऑपरेशन को लेकर सवालों के सिलसिले बढ़ते जा रहे हैं। स्टिंग के जरिए ब्लैकमेल करने के आरोपों पर उत्तराखंड में साल भर में ये दूसरी गिरफ्तारी है और समाचार प्लस के सीईओ उमेश कुमार से पहले चैनल वन के मालिक रहे जहीर खान के बेटे और चैनल के डायरेक्टर में से एक को इसी तरह के आरोपों में देहरादून में गिरफ्तार किया गया था। इन गिरफ्तारियों का आधार एक जैसा ही है दोनों पर अधिकारियों का स्टिंग कर उन्हें ब्लैकमेल करने के आरोप हैं। इन मामलों में कोर्ट और पुलिस अपना काम कर रही है और सच तक पहुंचने के लिए हमें देश की न्याय व्यवस्था पर निर्भर रहना होगा और उसके मानदंडों पर भरोसा करना होगा, लेकिन ऐसी घटनाओं से ये सवाल जरूर उठते हैं कि चैनल का स्टिंग ऑपरेशन करने वाला विंग यानी एसआईटी का मोटिव आखिर होता क्या है? क्या धन की उगाही करना? क्या नेताओं का हथियार के रूप में इस्तेमाल होना? या अपने विरोधियों को निशाने पर लेना? ये सवाल आम लोगों के जेहन में मीडिया को लेकर रहे हैं मगर अब और इन सवालो पर और जोर पड़ेगा।
स्टिंग ऑपरेशन पर आधारित और सच को दिखाने का दावा करने वाली चैनलों की प्रोग्रामिंग के पीछे कहीं सिर्फ धन उगाही का मकसद तो नहीं, जैसा कुछ साल पहले ज़ी के संपादकों का जिंदल द्वारा जारी टेप में देखा और सुना गया। हालांकि खबरों के जरिये दबाव का हथियार इस्तेमाल कर इश्तहार जुटाने का जो आरोप जिंदल की ओर से लगाया गया और एक युद्ध की स्थिति पैदा की गई, वो बाद में युद्ध विराम और फिर समझौते में तब्दील हो गई। इसलिए अब कानूनी तौर तकनीकी रूप से इन आरोपों का कोई मतलब नहीं रह जाता, लेकिन फिर भी बात निकलती है तो दूर तक जाती है। ज़ी के संपादक और पॉपुलर प्राइम टाइम शो 'डीएनए' के एंकर सुधीर चौधरी जिंदल की ओर से जारी किए गए टेप में नजर आने के बावजूद अपने करियर की रफ्तार को तेजकर एक बड़े मुकाम पर पहुंचते हुए नजर आए। 'खतरों' से खेल कर आगे बढ़ने के उदाहरण के तौर पर जाने जाने वाले सुधीर चौधरी के हिस्से में ‘लाइव इंडिया’ का उमा खुराना कांड भी रहा है। 2007 में दिखाया गया ये एक ऐसा स्टिंग ऑपरेशन था, जिसको दिखाए जाने पर दिल्ली की एक महिला टीचर पर सेक्स रैकेट के आरोप में भीड़ ने हमला कर दिया था। इस स्टिंग ऑपरेशन की वजह से 2007 में तकरीबन तीन हफ्ते के लिए सरकार की ओर से चैनल को ऑफ एयर कर दिया गया था, लेकिन ठीक तीन साल बाद जो यही ‘लाइव इंडिया’ सुधीर चौधरी के नुमाइंदगी में 10 टीआरपी पारकर मीडिया जगत और दर्शकों को चौकने पर विवश कर दिया था। ‘लाइव इंडिया’ के हिस्से में रहते हुए तब मैं भी इन लम्हों का गवाह रहा।
कुछ लोग उमा खुराना के स्टिंग के तार जिंदल की ओर से कराए गए स्टिंग से जोड़ते हैं। कहा जाता है कि जो पत्रकार उमा खुराना का वो फर्जी स्टिंग लेकर आया था और बाद में ‘लाइव इंडिया’ की नौकरी से निकाला गया, उसी ने जिंदल के साथ मिलकर ज़ी के संपादक बन चुके सुधीर चौधरी के खिलाफ बिसात बिछाई। हालांकि इन बातों के कोई पुख्ता सबूत नहीं है।
2007 में जब उमा खुराना का स्टिंग आया था तो स्टिंग के खिलाफ सरकार और जनमानस में जिस तरह माहौल बना था उसका सबसे बड़ा खामियाजा स्टिंग किंग कहे जाने वाले अनिरुद्ध बहल को ‘कोबरापोस्ट’ को भुगतना पड़ा था। उस समय ‘स्टार न्यूज’ और ‘आईबीएन 7’ पर नियमित रूप से स्टिंग ऑपरेशन पर दिखाई जाने वाले ‘कोबरापोस्ट’ के प्रोग्राम्स पर ब्रेक लग गया और इस वजह से कंपनी के कई लोगों को दूसरी नौकरी तलाशने के लिए कहा गया था उन्हीं दिनों मैं ‘कोबरापोस्ट’ का हिस्सा था और बाद में ‘लाइव इंडिया’ का हिस्सा बना।
स्टिंग को जुनून के साथ करना, तार्किक तरीके से रखना और उसे जनहित में पेश करना ये हुनर अनिरुद्ध बहल से बेहतर भला कौन जानता है। तरुण तेजपाल के ‘तहलका’ के संस्थापकों में रहे अनिरुद्ध बहल ने जब ‘कोबरापोस्ट’ शुरू किया, जो उस वक्त सबसे बड़ा स्टिंग ऑपरेशन किया गया, उसका नाम ‘ऑपरेशन दुर्योधन’ था। ऑपरेशन दुर्योधन यानी उन सांसदों का खुलासा जिन्होंने सवाल पूछने के बदले पैसे मांगे थे। 'आजतक' पर दिखाए गए ऑपरेशन दुर्योधन में जिन सांसदों ने कैमरे पर सवाल पूछने के बदले पैसे मांगे थे, उनको सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिए अदालत की सुनवाई जारी है और इस मामले के इकलौते गवाह के रूप में खुद मुझे भी अदालती कार्यवाही का हिस्सा बनाया गया है।
‘कोबरापोस्ट’ ने उस दौर में उस दौर में अब भी जितने भी स्टिंग ऑपरेशन दिखाए, उसमें जन सरोकार देखा और महसूस किया गया स्टिंग की पोफेसनिज्म ही वजह है कि ‘कोबरापोस्ट’ से निकले हुए लोग तकरीबन सभी चैनलों के एसआईटी का हिस्सा हैं। स्टिंग ऑपरेशन जर्नलिज्म की एक विधा है और सच को उजागर करने में मददगार भी लेकिन अब इसके मायने बदलते हुए नजर आ रहे हैं और ये एक चिंताजनक विषय है। बदले दौर में ‘कोबरापोस्ट’ की फंडिंग को लेकर भी कई ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब नहीं मिल पा रहा है।
2004 से अब तक टीवी पत्रकारिता के अपने अनुभवों के दौरान कई बार ये चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन के बारे में सुनने को मिला कि इस सब्जेक्ट पर इतने लोगों का स्टिंग था, कुछ लोगों को दिखाया गया और बाकी लोगों से सेटिंग कर ली गई। ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या स्टिंग जर्नलिज्म ‘सेटिंग जर्नलिज्म’ है। स्टिंग ऑपरेशन की ताकत ऐसी होनी चाहिए कि वो सरकार गिरा दे, लेकिन सरोकार नहीं गिरने पाए, लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है, होने दिया जा रहा है या फिर स्टिंग ऑपरेशन करने वाले लोग और चैनल इसे दुश्मनों को निपटाने का हथियार और ब्लैकमेल कर रेवेन्यू जुटाने का जरिया बनाते जा रहे हैं। जिनके स्टिंग ऑपरेशन देश की सत्ता हिलती है, जो व्यवस्था की बदइंतजामी के खिलाफ आम लोगों की आवाज बन रहे हैं उनको सलाम है, लेकिन जो लोग स्टिंग के जरिए 'कुछ और ही' कर रहे हैं, उन्हें उनके किए की सजा कोर्ट के जरिए मिलेगी। हां इतना जरूर है कि स्टिंग को लेकर जब भी कोई गिरफ्तारी होती है सवाल और तेज हो जाते हैं और हर स्टिंग करने वाले को एक ही नजरिए से देखा जाने लगता है, जो इस विधा के लोगों के लिए एक खतरनाक संकेत हैं।
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