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पत्रकारों की वेदना पर पीएम के बयान का जबर्दस्त विश्लषण पढ़ें यहां...
पत्रकारों में सेल्फी के लिए मशहूर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जलवा फिर दिखा...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago
प्रेम कुमार
पत्रकारों में सेल्फी के लिए मशहूर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जलवा फिर दिखा। दिवाली मिलन में पत्रकारों के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने मीडिया के महत्व और योगदान पर स्वाभाविक रूप से बोला। मगर, मीडिया के साथ अपने औपचारिक और अनौपचारिक अनुभवों का जो जिक्र उन्होंने किया, वह नज़रअंदाज करने वाला नहीं है।
मगर, वे नज़रअंदाज इस रूप में हुए कि पत्रकार बिरादरी ने पीएम मोदी के साथ सेल्फी तो लिए, लेकिन सवाल पूछने का मौका गंवा दिया। वे चाहते तो सवाल से ही पीएम मोदी की चिन्ता का जवाब निकाल सकते थे।
जब मोदी ने पत्रकारों के लिए बयान किया अपना अनुभव
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “मेरा अनुभव है कि मीडिया जगत फॉर्मल तौर पर अपनी-अपनी भूमिका अदा करता है, लेकिन जब इन्फॉर्मल बैठते हैं, तो सभी के दिल में देश के लिए वेदना होती है। कुछ करने का इरादा होता है। आप काफी जगह पर होकर आए होते हैं, इसलिए आपकी सलाहों में दम होता है। यह अपनापन बहुत फायदेमंद होता है।”
क्या है पीएम मोदी के ‘अनुभव’ के मायने
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इन पंक्तियों का एक आशय ये है कि पत्रकार औपचारिक और अनौपचारिक तौर पर अलग-अलग होते हैं। इस बात से ज्यादातर लोग सहमत हो सकते हैं। सहमति नहीं होने का कारण इस बात में भी नहीं है कि अनौपचारिक होने पर सभी के दिल में देश के लिए वेदना होती है। मगर, ऐसा कहते ही ये सवाल स्वाभाविक रूप से उभरता है कि क्या औपचारिक रहते हुए पत्रकारों में देश के लिए वेदना नहीं होती? क्या पत्रकार वाकई देश के लिए वेदना से ऊपर उठकर पत्रकारिता कर रहे हैं? अगर, कर रहे हैं तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इससे सहमत नहीं हैं। यह उनकी बात से झलकता है। वे चाहते हैं कि पत्रकारों के दिल में अनौपचारिक रूप से ही नहीं, औपचारिक रूप से भी देश के लिए वेदना हो।
क्या है ‘देश के लिए वेदना’
देश के लिए वेदना का अपना मर्म है। एक बहस ही छिड़ी हुई है कि देशभक्ति किसे कही जाए, देशभक्त कौन हैं, राजनीति का आधार देशभक्ति होनी चाहिए या कि पत्रकारिता का मूल देशभक्ति होनी चाहिए। अगर इस बहस में न पड़ते हुए भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयान को समझने की कोशिश की जाए, तो पत्रकारों के लिए प्रधानमंत्री की टिप्पणी में एक चिन्ता झलकती है। यह चिन्ता देश के प्रधानमंत्री की है। मगर, पत्रकारों के नज़रिए से देखा जाए तो उनके लिए प्रधानमंत्री की यही ‘चिन्ता’ सबसे बड़ी चिन्ता के तौर पर उभर रही है।
‘देश के लिए वेदना’ की कसौटी पर पत्रकार
पत्रकारिता को लेकर जब भी विमर्श होता है तो भावना यही हावी होती है कि पत्रकार औपचारिक रहते हुए देश के लिए वेदना भी साथ लेकर चलते हैं। इन दिनों तो पत्रकारिता में यह भावना घर कर गयी है। बल्कि, पहले न खेल में कोई पत्रकार अपने देश के लिए जीत की भावना लेकर पत्रकारिता करता था न ही विदेशी मेहमानों के साथ भारतीय बनकर सवाल पूछता था। पत्रकार खुद को ग्लोबल समझते हुए, अपने देश की राष्ट्रीयता से इतर अंतरराष्ट्रीय नागरिकता का भाव महसूस करते हुए पत्रकारिता करने को आदर्श समझता था। मगर, आज स्थिति बदल गयी है। यह बदली हुई स्थिति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इच्छा के अनुरूप है। फिर भी शायद प्रधानमंत्री इससे संतुष्ट नहीं हैं। वे चाहते हैं कि अनौपचारिक रहते हुए पत्रकारों में जितनी वेदना होती है, वह औपचारिक रहते हुए दिखनी चाहिए।
न पीएम गलत, न पत्रकार!
यह मान लेना प्रधानमंत्रीजी की भावना के साथ अन्याय होगा कि पत्रकारों के साथ अपने अनुभवों को उन्होंने सही तरीके से व्यक्त नहीं किया है। सम्भव है कि ज्यादातर उनके सम्पर्क में आए पत्रकार देशभक्ति और देश के लिए वेदना दिखाते रहना ही उनके करीब आने या करीब रहने का बहाना समझते हों। उन पत्रकारों को भी गलत नहीं ठहराया जा सकता। ख़बर निकालने के लिए पत्रकारों को क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते। औपचारिक और अनौपचारिक रूप में अगर पत्रकारों को अपने सिद्धांत अलग-अलग रखने पड़ रहे हैं तो यह उनकी व्यावसायिक विवशता भी हो सकती है। लेकिन, इससे असहमत होकर इसे स्वार्थ के लिए विवशता मानने वालों की भी कमी नहीं होगी, ऐसा विश्वास के साथ कहा जा सकता है।
पत्रकारों के बीच राजनीतिक दलों में लोकतंत्र पर चिन्ता
प्रधानमंत्री पत्रकारों के साथ हों और लोकतंत्र की बात न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। पत्रकारिता और लोकतंत्र दोनों भाव एक साथ उठते हैं। पत्रकारिता है इसलिए लोकतंत्र है या कि लोकतंत्र है इसलिए पत्रकारिता है। हिन्दुस्तान की आजादी के इतिहास में पत्रकार और पत्रकारिता की जो भूमिका है उसको भी तवज्जो मिलती है। आज़ाद हिन्दुस्तान में भी लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, अरुण शौरी, एमजे अकबर, मनीष सिसौदिया, आशुतोष जैसी शख्सियत रहे हैं जो नेता होने के साथ-साथ पत्रकार भी रहे हैं या फिर पत्रकार होने के बाद नेता भी बने हैं। वैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बार पत्रकारों के बीच इमर्जेंसी के दिनों को याद नहीं किया, लेकिन राजनीतिक दलों में लोकतंत्र को बचाए रखने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि इस विषय पर बहस होनी चाहिए कि राजनीतिक दलों में लोकतंत्र कैसे मजबूत हो।
आन्तरिक लोकतंत्र के लिए बीजेपी का पास है सुनहरा मौका
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी की सरकार के मुखिया नरेन्द्र मोदी को आज राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नहीं होने की चिन्ता खाए जा रही है। बीजेपी की केन्द्र के साथ-साथ आज देश के 19 प्रान्तों में सरकारें हैं। अगर खुद बीजेपी ही आन्तरिक लोकतंत्र की अहमियत समझ ले, तो लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए मिले इस सुनहरे मौके का इस्तेमाल हो सकता है।
काश! आन्तरिक लोकतंत्र पर पीएम से भी पूछे गये होते सवाल!
पत्रकारों से मिलन के दौरान बोलने का मौका वैसे सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास था, लेकिन अगर पत्रकारों को भी उनसे प्रतिप्रश्न पूछने का मौका होता या फिर उन्होंने ऐसा मौका गंवाया नहीं होता, तो प्रधानमंत्री से भी बीजेपी में आन्तरिक लोकतंत्र को लेकर निम्न सवाल दागे जा सकते थे -
-नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी जब यूपी में विधायकों को एक सांसद को अपना मुख्यमंत्री चुनने का विकल्प देती है तो आन्तरिक लोकतंत्र इससे मजबूत होता है या कमजोर?
-जवाब यह भी देना होगा कि जिस व्यक्ति को जनता चुनाव में पराजित कर दे, उन्हें आप देश के अहम मंत्रालय सौंप कर किस तरह से लोकतंत्र को मजबूत कर रहे होते हैं? बीजेपी के भीतर का यह आन्तरिक लोकतन्त्र कैसा है जो यह सब होने दे रहा है?
-चुनाव पूर्व गठबंधन तोड़वाकर बिहार में जेडीयू के साथ सरकार बनाने की पहल क्या बीजेपी में आन्तरिक लोकतंत्र से उपजी राय के मुताबिक है?
-क्या उत्तराखण्ड में हरीश रावत की सरकार को गिराने के लिए जो कुछ हुआ था, वह सब कुछ बीजेपी की आन्तरिक लोकतंत्र से उपजी हुई आवाज़ थी?
-चुनाव के वक्त दूसरी पार्टी से नेताओं को बीजेपी में शामिल कर टिकट देना और वफादार कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करना क्या आन्तरिक लोकतन्त्र के मुताबिक होता है?
-क्या बीजेपी के भीतर उत्तेजक भाषण देने वालों को खुली छूट देने का लोकतंत्र है? क्यों नहीं ऐसे नेताओं पर कार्रवाई की जाती है? क्यों उन उत्तेजक बयानों को व्यक्तिगत राय बताकर पल्ला झाड़ लिया जाता है?
-क्यों ऐसा है कि एक बार जो किसी सूबे में कप्तान बन जाता है वही लगातार रिपीट होता रहता है? क्या यह आन्तरिक लोकतंत्र के मुताबिक चल रहा है? अगर हां, तो क्या यही बीजेपी का स्वस्थ आन्तरिक लोकतंत्र है?
-बीजेपी के भीतर बड़े राजनीतिक फैसलों में बीजेपी से इतर संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भूमिका और हस्तक्षेप पर भी ईमानदारी से बोलना जरूरी है। क्या पीएम सच स्वीकार करने की हिम्मत दिखाएंगे?
-क्या नरेन्द्र मोदी ये बताएंगे कि गुजरात के मुख्यमंत्री से बीजेपी का पीएम उम्मीदवार बनने की प्रक्रिया के पीछे बीजेपी का आन्तरिक लोकतंत्र काम कर रहा था या कि आरएसएस?
सेल्फी से ज्यादा जरूरी थे पीएम मोदी से सवाल
इन सवालों पर चुप रहकर देश के राजनीतिक दलों में लोकतंत्र के सवाल को बढ़ाया नहीं जा सकता है। ‘औरों के मुकाबले हम ज्यादा लोकतंत्र’ बोलने भर से काम नहीं चलेगा। पत्रकारिता को देश के लिए वेदना रखने और राजनीतिक दलों में लोकतंत्र को मजबूत करने की ज़रूरत सिर्फ भाषण नहीं हो सकता। और, न ही पत्रकारों को महज भाषण के रूप में इसे चुप रहकर स्वीकार करना चाहिए। पत्रकारों के लिए प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी से ज्यादा जरूरी है प्रधानमंत्री से सवाल।
(लेखक आईएमएस, नोएडा में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। आप दो दशक से प्रिंट व टीवी पत्रकारिता में सक्रिय हैं। मौर्य टीवी और फोकस ग्रुप में बतौर आउटपुट हेड काम कर चुके हैं। इसके अलावा सहारा समय, न्यूज़ एक्सप्रेस, ब्लू क्राफ्ट डिजिटल मीडिया में कार्य करने का अनुभव है। इस्पात मेल, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, दैनिक भास्क जैसे अखबारों में काम करने के बाद इलेक्ट्रॉनिक व ऑनलाइन मीडिया की ओर प्रवृत्त हुए। )
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