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हरेक के लिए क्यों जरूरी है ‘डियर जिंदगी’, एक बार पढ़ें जरूर...
आप चाहे मल्टीनेशनल कंपनी में हों या किसी अखबार के दफ्तर में बैठकर...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आप चाहे मल्टीनेशनल कंपनी में हों या किसी अखबार के दफ्तर में बैठकर दुनिया को सही-गलत के बीच का भेद बता रहे हों, आपको कभी न कभी उस दौर से गुजारना पड़ा होगा, जिससे आजकल के बच्चे गुजर रहे हैं। यानी सफल होने का दबाव, पेरेंट्स की अपेक्षाओं को पूरा करने का दबाव और साथियों के साथ दौड़ में बने रहने का दबाव।
आज भले ही हमारी जिन्दगी में अपार चुनौतियां हों, लेकिन बालमन पर पड़ने वाले उस दबाव का प्रभाव इनसे कहीं ज्यादा था। अपेक्षाएं किस तरह बोझ का रूप लेकर बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं, इसके उदाहरण हमें आए दिन देखने को मिल जाया करते हैं। हम भले ही इस दबाव या अपेक्षाओं को कम न कर सकें, लेकिन एक ऐसा माहौल तो निर्मित कर ही सकते हैं, जहां ठोकर लगने को जिंदगी का अंत न समझा जाए, जहां औसत प्रदर्शन करने वाले बच्चों को यह अहसास दिलाया जाए कि सफलता नंबरों को मोहताज नहीं होती।। जी मीडिया के डिजिटल एडिटर दयाशंकर मिश्र पिछले काफी समय से कुछ ऐसा ही कर रहे हैं। जी न्यूज की वेबसाइट पर ‘डियर जिंदगी’ के नाम से उनका एक कॉलम है, जिसके माध्यम से वह समाज में फैली निराशा और अवसाद की धुंध को दूर करने के इमानदार प्रयास में लगे हैं।
बोर्ड के परिणामों के मद्देनजर उन्होंने ‘जिनके नंबर कम हैं, उम्मीदें उनसे ही हैं!’ शीर्षक तले बेहद खूबसूरत अंदाज में बच्चों और उनके पेरेंट्स को यह समझाने का प्रयास किया है कि एक मोर्चे पर कमजोर होने का यह मतलब नहीं होता कि पूरी जिंदगी कमजोरी के साथ गुजरेगी। उन्होंने लिखा है, ‘सफल बच्चा उस बच्चे से कैसे बेहतर हो सकता है, जो तय समय में रटी/समझी चीजें ठीक से नहीं लिख पाया। यह समझ पाना बहुत मुश्किल है कि कैसे एक कम नंबर पाने वाले बच्चे को उस बच्चे से कमतर कहा जा सकता है, जिसके नंबर उस बच्चे से अधिक आए हैं। नोबल पाने वालों की सूची इस बात का दूसरा सबसे बड़ा प्रमाण है कि बच्चे केवल स्कूल में फेल होते हैं। समस्या स्कूल की परीक्षा प्रणाली में है, उन बच्चों में नहीं, जो वहां कथित रूप से कमतर घोषित किए जाते हैं। यह पोस्ट उनके लिए नहीं है, जिनके नंबर बहुत अच्छे आए। उनके लिए तो समाज बाहें फैलाए बैठा है। यह उनके लिए है, जिनकी नजरें, कंधे झुके हैं। जो खुद को हारा, टूटा महसूस कर रहे हैं’।
केवल बच्चों के लिए ही नहीं, ‘डियर जिंदगी’ में उन तमाम लोगों के लिए भी सीख है, जो रिश्तों से उलझे तनाव में रिश्तों को ही तबाह कर बैठते हैं। दयाशंकर के पास शब्दों का समुंदर है, वह कठिन से कठिन बातों को भी कितनी सरलता और सहजता के पेश करते हैं कि पढ़ने वाला उनका कायल हुए बिना नहीं रह सकता। कुछ वक्त पहले उन्होंने ‘कौन है जो अच्छाई को चलन से बाहर कर रहा है’ शीर्षक तले अर्थशास्त्र के सहारे जीवन जीने की कला को बखूबी बयां किया था।
दयाशंकर ऐसे बिरले ही डिजिटल पत्रकार हैं जो मानते हैं कि सोशल मीडिया के अत्यधिक प्रयोग और मोबाइल के इर्द-गिर्द घूमती जिंदगी ने हमें भीड़ में भी अकेला बना दिया है। हम सबसे साथ होकर भी नहीं हैं। वो कहते हैं, ‘घर पर टीवी देखना, अकेले में लैपटॉप पर फिल्म देखना। मोबाइल पर चैटिंग करना यह खुद के लिए दिया गया समय नहीं है। यह खुद को दिया गया समय भी नहीं है। स्वयं को दिया गया समय, तो केवल वह है, जिसमें आप खुद से संवाद करें। खुद से बात करें। अपने मन के दर्पण के सामने अपना 'रिव्यू' करें। इस रिव्यू में तनाव, चिंता को बहा दें। जो खुद को समय नहीं दे रहे, वह निरंतर उसी बीमारी की ओर बढ़ रहे हैं, जिसका नाम डिप्रेशन, तनाव है, और परिणाम दुख की गहरी छाया और आत्महत्या तक जा सकता है’।
मुख्यधारा की पत्रकारिता में आने से पहले दयाशंकर शिक्षक थे। भोपाल में उन्होंने कई सालों तक गरीब बच्चों में शिक्षा की अलख जगाने का प्रयास किया। वो कहते हैं, ‘मैं भोपाल के ऐसे इलाके से ताल्लुक रखता हूं जहां ऐसे बच्चों की तादाद काफी ज्यादा थी, जो आर्थिक परेशानियों के चलते शिक्षा हासिल नहीं कर पाते। लिहाजा मैंने उन्हें पढ़ाने का फैसला लिया, बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते मुझे यह अहसास हुआ कि परिवार और समाज के दबाव में बच्चे आशावान बनने के बजाये निराशा के अंधेरे में घिरते जा रहे हैं। उन दिनों शिक्षा से उपजे तनाव के चलते बच्चों की आत्महत्या के मामले काफी तेजी से सामने आ रहे थे, तब मैंने सोचा कि इस विषय पर जनजागृति के लिए कुछ किया जाए। दिल्ली आने के बाद मैंने अपने उस विचार को विस्तार देना शुरू किया, लोगों से इस विषय में बात की। इस बीच एक घटना ने मुझे पूरी तरह झंकझोर दिया। मेरे एक मित्र के डॉक्टर भाई ने अचानक मौत को गले लगा लिया, उसकी उम्र महज 24 साल थी। मुझे लगा कि यदि अब कुछ नहीं किया गया, तो बहुत देर हो जाएगी। करीब दो साल पहले मैंने अपने मौहल्ले के लोगों को इकट्ठा किया और उनसे कहा कि हम जिंदगी पर बात करते हैं... हमने उस चर्चा का नाम 'जीवन संवाद' रखा। बाद में ये तय हुआ कि हमारी इस चर्चा या विचारों एवं अनुभव के आदान-प्रदान को लिखित रूप दिया जाना चाहिए। तब जाकर पिछले साल ‘डियर जिंदगी’ अस्तित्व में आया’।
दयाशंकर कहते हैं कि बच्चों की आत्महत्या एक ऐसा विषय है जिस पर मुख्यधारा में कोई बात नहीं करता। बच्चे और छात्रों की समस्या पर कोई संगठित बात नहीं करता है, क्योंकि वो वोटर नहीं हैं। आत्महत्या एक निजी दुःख है जो समाज में निरंतर बढ़ रहा है। इसका आर्थिक आधार नहीं है, इसका आधार है मानसिक तनाव और मैं ‘डियर जिंदगी’ के माध्यम से उसे दूर करने का प्रयास कर रहा हूं। मेरा मानना है कि पत्रकार होने के नाते हमें अपने देश के भविष्य को मजबूती प्रदान करने पर भी ध्यान देना चाहिए, बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं, यदि वे तनाव और अवसाद में गिरे रहेंगे तो देश का भविष्य कैसा होगा आप कल्पना कर सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि ‘डियर जिंदगी’ में उठाए जाने वाले विषय को लेकर दयाशंकर को सिर्फ सराहना ही मिली। कई बार उन्हें आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। वो कहते हैं, ‘कई बार लोग मुझसे कहते हैं कि किस विषय पर लिखते हो। लेकिन मेरा मानना है कि अगर सब राजनीति की बात करेंगे, अपराध की बात करेंगे, तो मनुष्य की बात कौन करेगा?’
यहां पढ़ें जी मीडिया के डिजिटल एडिटर दयाशंकर मिश्र का ये ब्लॉग-
डियर जिंदगी : जिनके नंबर कम हैं, उम्मीदें उनसे ही हैं!
मोबाइल, फेसबुक और अखबार उन बच्चों से भरे हैं, जिन्होंने दसवीं में शानदार प्रदर्शन किया। बधाई ऐसे बच्चों के गले का हार बन गई है। मिसाल के लिए हमेशा घर की खिड़की से बाहर झांकते समाज में बच्चों की यह कामयाबी जितना उनका भला नहीं करती उससे कहीं अधिक उनका नुकसान करती है।
सफल बच्चा उस बच्चे से कैसे बेहतर हो सकता है, जो तय समय में रटी/समझी चीजें ठीक से नहीं लिख पाया। यह समझ पाना बहुत मुश्किल है कि कैसे एक कम नंबर पाने वाले बच्चे को उस बच्चे से कमतर कहा जा सकता है, जिसके नंबर उस बच्चे से अधिक आए हैं। बात केवल भारत की नहीं है, दुनिया के तमाम बड़े देश इस बात की गवाही देते हैं कि वहां के इतिहास, विज्ञान, शोध, राजनीति, कला, सिनेमा में जितना योगदान कम नंबर लाने वालों का है, उतना दूसरे किसी का नहीं है।
नोबल पाने वालों की सूची इस बात का दूसरा सबसे बड़ा प्रमाण है कि बच्चे केवल स्कूल में फेल होते हैं। समस्या स्कूल की परीक्षा प्रणाली में है, उन बच्चों में नहीं, जो वहां कथित रूप से कमतर घोषित किए जाते हैं। यह पोस्ट उनके लिए नहीं है, जिनके नंबर बहुत अच्छे आए। उनके लिए तो समाज बाहें फैलाए बैठा है। यह उनके लिए है, जिनकी नजरें, कंधे झुके हैं। जो खुद को हारा, टूटा महसूस कर रहे हैं।
साथी पत्रकार पीयूष बबेले ने कितनी खूबसूरत बात लिखी है, 'CBSE का रिजल्ट आया। कई लोगों ने टॉप किया और बहुत से बच्चों के आशा से कम नंबर आए। जिनके नंबर कम आए, उम्मीद मुझे उन्हीं से है, क्योंकि पिछले 70 साल में टॉपर्स ने देश के लिए क्या किया, इसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता। हां, टॉपर्स ने अपने लिए बहुत कुछ किया, यह मैं बखूबी जानता हूं। इसलिए जिनके कम नंबर आए, उन्हें बहुत बधाई। देश और समाज को उनसे बहुत आशाएं हैं।'
इस बात को थ्योरी मत समझिए। न ही इसे ऐसे देखा जाना चाहिए कि अरे इन बातों से कुछ नहीं होता। जिंदगी की दौड़ बड़ी क्रूर है। जानलेवा प्रतिस्पर्धा में बच्चा कैसे टिकेगा। असल में ऐसा कहते ही हम मनुष्य और मनुष्यता दोनों पर संदेह के घोड़े दौड़ा देते हैं। दसवीं और बारहवीं की परीक्षा असल में कोई मील का पत्थर नहीं है। यह हमारे पुराने, सड़ गल चुके सिस्टम की कमी है कि उसे अब तक बच्चों की प्रतिभा को सामने लाने का कोई दूसरा तरीका नहीं मिला है।
इसलिए
सरकार, समाज और स्कूल अपनी पुरानी हो चुकी सोच
को बदल नहीं पा रहे हैं। हम दुनिया के उन देशों की ओर नहीं देख रहे हैं, जो आज भी बच्चे को सात साल के बाद स्कूल भेजने के नियम पर कायम हैं। हम
उन अमेरिकन कॉलेजों के बारे में आंख-कान बंद किए हैं, जहां
सबसे अधिक समय इस बात पर दिया जाता है कि आपकी रुचि क्या है। बेकार की चीजों में
समय मत लगाइए, खुद को समझिए।
अंग्रेजों को कितना ही कोसते रहिए कि वह आपको क्लर्क बना गए। लेकिन उनको गए तो जमाना बीत गया। पीढ़ियां आईं और चली गईं, लेकिन स्कूल वैसे ही रहे। शिक्षा की रेल उसी पटरी पर दौड़ी जो अंग्रेज बिछा गए थे। हमने अपने टैगोर की विश्व भारती वाला रास्ता नहीं चुना। हमने शिक्षा के बारे में गांधी, बुद्ध और आइंस्टाइन की बातें नहीं सुनी। हम बच्चों को ढांचा बनाने में लग गए।
आप
गमलों में पौधे उगाकर पर्यावरण को नहीं बचा सकते। उसके लिए जंगल चाहिए। ठीक इसी
तरह नई, वैज्ञानिक सोच-समझ वाले नजरिए वाला देश
बड़ों से नहीं बनेगा। उसका बीज बच्चों से तैयार होगा। इसलिए बच्चों को मार्कशीट
के आधार पर तौलना बंद करना होगा। यह अपने ही खिलाफ किया जा रहा सबसे बड़ा अपराध है।
इसलिए, अपने उन बच्चों को जो आज नंबर की होड़ में पिछड़कर आत्महत्या तक को निकल रहे हैं, संभालिए। समझाइए कि स्कूल दुनिया से मिलने का रास्ता तो दूर, पगडंडी तक नहीं हैं। हमेशा याद रखिए और दूसरों से साझा करिए, 'बच्चा असफल नहीं होता, असफल स्कूल होता है। बच्चे हमेशा मंजिल तक पहुंचते हैं, बशर्ते हम उनको बता सकें कि जाना कहां है।' और यह हमारा ही काम है, बच्चों का नहीं।
आप डियर जिंदगी के अंतगर्त प्रकाशित उनके सभी ब्लॉग्स निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं...
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