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पढ़िए, इमरजेंसी लगते ही संजय गांधी सबसे पहले कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी क्यों चाहते थे?

जून 1975 का महीना था। देश में इमरजेंसी लग चुकी थी। जेपी आंदोलन से डरीं इंदिरा गांधी...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago

अजीत अंजुम

वरिष्ठ पत्रकार ।।

जून 1975 का महीना था। देश में इमरजेंसी लग चुकी थी। जेपी आंदोलन से डरीं इंदिरा गांधी और उनके सिपहसालारों की टोली अखबार मालिकों और संपादकों को सेंसरशिप से हंटर हांक रही थी। ज्यादातर संपादक साष्टांग दंडवत कर चुके थे। कोई आधा झुका था। कोई लेट चुका था। संजय गांधी सरकार में सीधे तौर पर नहीं कुछ होते हुए भी सब कुछ थे। मां देश की प्रधानमंत्री थीं। बेटा उनके नाम पर कुछ भी करने की हैसियत रखता था। प्रेस को कैसे काबू में रखना है और संपादकों से कैसे अपने पक्ष में मुनादी करवानी है, इसकी प्लानिंग संजय गांधी और उनके हुकुम के गुलाम मंत्री दिन रात कर रहे थे। तीन दिन के भीतर सूचना प्रसारण मंत्री इन्द्र कुमार गुजराल को सिर्फ इसलिए योजना आयोग में शंट कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने मां की जगह बेटे की बात न मानकर हुक्म उदूली करने की गुस्ताफी कर दी थी।

गुजराल की जगह संजय के सबसे खास दरबारी और ढिंढोरची विद्या चरण शुक्ला को सूचना प्रसारण मंत्रालय की कमान सौंप दी गई थी। शुक्ला संजय का हुक्म बजाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। इमरजेंसी के नाम पर कायदे-कानून को अपने जेब में रखने वाले वीसी शुक्ला को संजय गांधी ने कुलदीप नैयर को कंट्रोल करने का टास्क दिया था।

खुशवंत सिंह जैसे मठाधीश पत्रकार इंदिरा गांधी और संजय गांधी की शान में सजदे कर रहे थे, तब कुलदीप नैयर जैसे फाइटर पत्रकार-संपादक ही थे, जो सलाखों की परवाह किए बगैर चौथे खंभे की बुनियाद थामे बैठे थे। एक तरफ अखबारों का गला घोंटकर घुटने पर लाने की कवायद में जुटी संजय गांधी की सेना, दूसरी तरफ कुलदीप नैयर जैसे चंद पत्रकार। इमरजेंसी पर लिखी उनकी किताब - EMERGENCY RETOLD और ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ में उस दौर की दास्तान दर्ज हैं।

वो कुलदीप नैयर ही थे, जिन्होंने इमरजेंसी लागू होने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखकर उनके तानाशाही रवैये की न सिर्फ जोरदार मुखालफत की थी, बल्कि इमरजेंसी के खिलाफ पत्रकारों को लामबंद करना शुरू किया था। वो तारीख थी 3 जुलाई 1975, जब कुलदीप नैयर की अपील पर दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों के जमावड़ा लगा था। कुलदीप नैयर की तरफ से तैयार प्रस्ताव पर बहुत से पत्रकारों ने दस्तखत किए थे और उसे पीएम, प्रेसिडेंट और सूचना प्रसारण मंत्री को भेज दिया गया। कुछ ही मिनटों बाद संजय गांधी के हुक्म के गुलाम और इंदिरा गांधी की किचन कैबिनेट के ताकतवर सदस्य वीसी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को फोन करके मिलने बुलाया। उनका पहला सवाल था- ‘वह लव लेटर कहां है?’ कुलदीप नैयर ने हंसते हुए कहा- ‘मेरी तिजोरी में।’ नैयर को बेफिक्र देखकर वीसी शुक्ला ने पैंतरा बदला। धमकाने वाले अंदाज में कहा- ‘मुझसे बहुत से लोग कह चुके हैं कि आपको गिरफ्तार कर लेना चाहिए। आपको कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है।’

सरकार और शुक्ला जैसे मंत्रियों को इतनी ताकत उन बड़े पत्रकारों के समर्थन से भी मिली थी, जो इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी को बधाई देने पहुंचे थे। जिस दिन वीसी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को गिरफ्तारी का डर दिखाने के लिए बुलाया था, उसी दिन इंडियन एक्सप्रेस में उनका साप्ताहिक कॉलम छपा था- ‘नाट इनफ्फ मिस्टर भुट्टो’। लेख लिखा तो गया था पाकिस्तान के बारे में लेकिन इशारा भारत के हालात की तरफ था। पाकिस्तान में जुल्फीकार अली भुट्टो और फील्ड मार्शल अयूब खान के कार्यकाल की तुलना करते हुए नैयर ने लिखा था- ‘सबसे बुरा कदम उन्होंने लोगों का मुंह बंद करके उठाया है। प्रेस के मुंह पर ताला लगा है और विपक्ष के बयानों को सामने नहीं आने दिया जा रहा है। मामूली सी आलोचना भी बर्दाश्त नहीं की जा रही है।’

चूंकि इमरजेंसी की वजह से सीधे तौर पर इंदिरा सरकार के खिलाफ नहीं लिखा जा सकता था इसलिए कुलदीप नैयर ने चालाकी से पाक के बहाने भारत का हाल बयान किया था। वीसी शुक्ला ने नैयर को कहा कि ‘सरकार में बैठे लोग बेवकूफ नहीं है। कोई भी समझ सकता है कि इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की बात की जा रही है।’

कुलदीप नैयर ने इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ ऐसा मोर्चा खोल रखा था कि सरकार के सिपहसालार बौखलाए हुए थे। सेंसर को चमका देने के लिए कुलदीप नैयर ने वीसी शुक्ला की धमकी के बाद दो लेख और लिखे। इस बार दोनों लेखों में अमेरिका के बहाने इशारों में भारत की बात की गई। कुलदीप नैयर ने 10 जुलाई 1975 को लिखा- प्रजातंत्र का उपदेश देने वालों के हाथ खून से रंगे पाए गए। राष्ट्रपति निकसन किसी भी दूसरे राष्ट्रपति की तुलना में ज्यादा मतों से जीते थे फिर प्रेस और जनमानस के आगे उन्हें झुकना पड़ा और सत्ता से बाहर होना पड़ा। इस लेख के छपते ही सेंसर अधिकारियों ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को निर्देश दिया कि कुलदीप नैयर या उनके किसी छद्म नाम से कोई भी लेख सेंसर को दिखाए बिना अखबार में नहीं छपना चाहिए। इसी के बाद कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी हो गई थी।

गिरफ्तारी के पहले कुलदीप नैयर ने इमरजेंसी के खिलाफ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कड़ी चिट्ठी लिखी थी। कुलदीप नैयर लिखा था-

‘मैडम, किसी अखबार वाले के लिए यह तय करना मुश्किल होता है कि उसे कब मुंह खोलना चाहिए। वह जानता है कि ऐसा करके वह कहीं न कहीं किसी न किसी को नाराज करने का खतरा उठा रहा है। एक आम आदमी की तुलना में सरकार में सच्चाई को छिपाने और इसके प्रकट होने पर भयभीत होने की प्रवृति कहीं ज्यादा होती है। प्रशासन में ऊंचे पदों पर बैठे व्यक्ति यह मानकर चलते हैं कि वे और सिर्फ वे यही बात जानते हैं कि राष्ट्र को कब, कैसे और कितना बताना चाहिए। इसलिए अगर कोई ऐसी खबर छपती है, जिसे वो नहीं बताना चाहते तो उन्हें बहुत गुस्सा आता है। एक स्वतंत्र समाज में इमरजेंसी के बाद आप कई बार कह चुकी हैं कि आप इस धारणा में निष्ठा रखती हैं। प्रेस को जनता को सूचित करने के अपने कर्तव्य का पालन करना पड़ता है। अगर प्रेस सिर्फ सरकारी वक्तव्यों और सूचनाओं का प्रकाशन करता रहेगा तो चूकों, कमियों और गलतियों पर कौन उंगली उठाएगा?’

कुलदीप नैयर के इस पत्र का जवाब इंदिरा गांधी की तरफ से उनके सूचना सलाहकार शारदा प्रसाद ने दिया। शारदा प्रसाद ने इमरजेंसी के दौरान प्रेस सेंसर को सही ठहराते हुए लिखा- ‘अगर पिछले कुछ हफ्तों से सेंसरशिप लागू की गई है तो इसका कारण कोई व्यक्तिगत या सरकारी अति संवेदनशीलता नहीं है। इसका कारण यह है कि कुछ अखबार विपक्षी मोर्चे का अभिन्न अंग बन गए थे। इन पार्टियों को राष्ट्रीय जीवन को अस्त व्यस्त करने की उनकी योजना को कार्यान्वित करने से रोकना जरुरी हो गया था। प्रेस पर लगाए प्रतिबंधों के बाद पिछले कुछ दिनों में स्थिति में सचमुच सुधार हुआ है। प्रेस की आजादी व्यक्तिगत आजादी का ही हिस्सा है, जिसे किसी भी देश को राष्ट्रीय आपातकाल के समय में अस्थाई रुप से सीमित करना पड़ता है।’

कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में लिखा है- मुझे सबसे ज्यादा ठेस यह सुनकर पहुंची थी कि कुछ संपादक इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी को बधाई देने पहुंचे थे तो उन्होंने पूछा था कि हमारे ‘नामी’ पत्रकारों को क्या हो गया था क्योंकि एक भी कुत्ता नहीं ‘भौंका’ था।  मैंने कुछ अखबारों और न्यूज एजेंसियों के चक्कर लगाकर 28 जून की सुबह दस बजे प्रेस क्लब में जमा होने को कहा। अगली सुबह मैं वहां पत्रकारों का जमघट देखकर हैरान रह गया था, जिनमें कुछ संपादक भी शामिल थे। बकौल कुलदीप नैयर उस दिन प्रेस क्लब में उनकी तरफ से तैयार सेंसर विरोधी प्रस्ताव पर एन मुखर्जी, आर वाजपेयी, बीएच सिन्हा, राजू नागराजन, एन मणि, वीरेन्द्र कपूर, आनंद वर्धन, बलवीर पुंज, विजय क्रांति, सुभाष किरपेकर, प्रभाष जोशी, वेदप्रताप वैदिक, चांद जोशी समेत 27 पत्रकारों ने दस्तखत किए थे। बाद में इसी प्रस्ताव के बारे में जानने के लिए वीसी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को अपने दफ्तर बुलाया था, जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है।

बाद के सालों में इंदिरा के करीबी रहे आरके धवन ने सफाई देते हुए कुलदीप नैयर को कहा था कि संजय गांधी चाहते थे कि सभी बड़े पत्रकारों का मुंह बंद कर दिया जाए। धवन ने नैयर साहब को ये भी बताया था कि एक गोपनीय बैठक में सबसे पहले गिरफ्तारी के लिए उनका ही नाम लिया गया था क्योंकि उन्हें बड़ा पत्रकार माना जाता था। नैयर को गिरफ्तार करने वाले असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर बरार तक ने अपनी बेचारगी जाहिर करते हुए कहा था कि यह गिरफ्तारी मेरी आत्मा पर बोझ बनी रहेगी क्योंकि मैं एक निर्दोष आदमी को गिरफ्तार कर रहा हूं।

(नोट- ये सारी जानकारियां कुलदीप नैयर की किताब एक जिंदगी काफी नहीं से ली गई हैं।)


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