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प्रेमचंद की जयंती पर ZEE न्यूज ने प्रकाशित की ये तीन कहानियां, जो नहीं है मशहूर
आज प्रेमचंद की जयंती के मौके पर जी न्यूज डिजिटल ने उनकी ऐसी तीन कहानियों को...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago
आज प्रेमचंद की जयंती के मौके पर जी न्यूज डिजिटल ने उनकी ऐसी तीन कहानियों को अपने पोर्टल पर प्रकाशित किया हैं, जिन्हें उनकी बहुत ज्यादा मशहूर कहानियों में शामिल नहीं किया गया है। दरअसल, ये वे कहानियां हैं जो प्रेमचंद, प्रेमचंद के युग और आज प्रेमचंद की प्रासंगिकता के बारे में बताती हैं। इनमें पहली कहानी है ‘जुलूस’, दूसरी कहानी है- 'अंधेर' और तीसरी कहानी है- ‘इस्तीफा’।
पढ़िए, जी न्यूज की ये तीनों कहानियां-
जुलूस
यहां जिस पहली कहानी को लिया गया है, वह है ‘जुलूस’। अपने साहित्यिक महत्व के साथ ही इस कहानी की तासीर यह है कि सिर्फ इस एक कहानी को पढ़कर आज की पीढ़ी महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़े गए आजादी के आंदोलन को संपूर्णता में समझ सकती है। उसे पता चलेगा कि बहादुरों की अहिंसा और कायरता में जमीन आसमान का फर्क होता है।
जुलूस :
पूर्ण स्वराज्य का जुलूस निकल रहा था। कुछ युवक, कुछ बूढ़ें, कुछ बालक झंड़ियां और झंडे लिए वंदेमातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले। दोनों तरफ दर्शकों की दीवारें खड़ी थीं, मानो यह कोई तमाशा है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना है।
शंभुनाथ ने दुकान की पटरी पर खड़े होकर अपने पड़ोसी दीनदयाल से कहा- सब के सब काल के मुंह में जा रहे हैं। आगे सवारों का दल मार-मार भगा देगा।
दीनदयाल ने कहा- महात्मा जी भी सठिया गए हैं। जुलूस निकालने से स्वराज्य मिल जाता तो अब तक कब का मिल गया होता। और जुलूस में हैं कौन लोग, देखो— लौंड़े, लफंगे, सिरफिरे। शहर का कोई बड़ा आदमी नहीं।
मैकू चिटिटयों और स्लीपरों की माला गरदन में लटकाए खड़ा था। इन दोनों सेठों की बातें सुन कर हंसा।
शंभू ने पूछा- क्यों हंसे मैकू? आज रंग चोखा मालूम होता है।
मैकू- हंसा इस बात पर जो तुमने कही कि कोई बड़ा आदमी जुलूस में नहीं है। बड़े आदमी क्यों जुलूस में आने लगें, उन्हें इस राज में कौन आराम नहीं है? बंगलों और महलों में रहते हैं, मोटरों पर घूमते हैं, साहबों के साथ दावतें खाते हैं, कौन तकलीफ है! मर तो हम लोग रहे हैं जिन्हें रोटियों का ठिकाना नहीं। इस बखत कोई टेनिस खेलता होगा, कोई चाय पीता होगा, कोई ग्रामोफोन लिए गाना सुनता होगा, कोई पारिक की सैर करता होगा, यहां आए पुलिस के कोड़े खाने के लिए? तुमने भी भली कही?
शंभू- तुम यह सब बातें क्या समझोगे मैकू, जिस काम में चार बड़े आदमी अगुआ होते हैं उसकी सरकार पर भी धाक बैठ जाती है। लौंडों- लफंगों का गोल भला हाकिमों की निगाह में क्या जंचेगा?
मैकू ने ऐसी दृष्टि से देखा, जो कह रही थी- इन बातों के समझने का ठेका कुछ तुम्हीं ने नहीं लिया है और बोला- बड़े आदमी को तो हमीं लोग बनाते-बिगाड़ते हैं या कोई और? कितने ही लोग जिन्हें कोई पूछता भी न था, हमारे ही बनाये बड़े आदमी बन गए और अब मोटरों पर निकलते हैं और हमें नीच समझते हैं। यह लोगों की तकदीर की खूबी है कि जिसकी जरा बढ़ती हुई और उसने हमसे आंखें फेरीं। हमारा बड़ा आदमी तो वही है, जो लंगोटी बांधे नंगे पांव घूमता है, जो हमारी दशा को सुधारने को लिए अपनी जान हथेली पर लिए फिरता है और हमें किसी बड़े आदमी की परवाह नहीं है। सच पूछो, तो इन बड़े आदमियों ने ही हमारी मिट्टी खराब कर रखी है। इन्हें सरकार ने कोई अच्छी-सी जगह दे दी, बस उसका दम भरने लगे।
दीनदयाल- नया दारोगा बड़ा जल्लाद है। चौरास्ते पर पहुंचते ही हंटर लेकर पिल पड़ेगा। फिर देखना, सब कैसे दुम दबा कर भागते हैं। मजा आएगा।
जुलूस स्वाधीनता के नशे में चूर चौरास्ते पर पहुंचा तो देखा, आगे सवारों आर सिपाहियों का एक दस्ता रास्ता रोके खड़ा है।
सहसा दारोगा बीरबल सिंह घोड़ा बढ़ाकर जुलूस के सामने आ गए और बोले- तुम लोगों को आगे जाने का हुक्म नहीं है।
जुलूस के बूढ़ें नेता इब्राहिम अली ने आगे बढ़कर कहा-मैं आपको इतमीनान दिलाता हूं, किसी किस्म का दंगा-फसाद न होगा। हम दुकानें लूटने या मोटरें तोड़ने नहीं निकले हैं। हमारा मकसद इससे कहीं ऊंचा है।
बीरबल- मुझे यह हुक्म है कि जुलूस यहां से आगे न जाने पाए।
इब्राहिम- आप अपने अफसरों से जरा पूछ न लें।
बीरबल- मैं इसकी कोई जरूरत नहीं समझता।
इब्राहिम- तो हम लोग यहीं बैठते हैं। जब आप लोग चलें जायंगे तो हम तो निकल जाएंगे।
बीरबल- यहां खड़े होने का भी हुक्म नहीं है। तुमको वापस जाना पड़ेगा।
इब्राहिम ने गंभीर भाव से कहा- वापस तो हम न जाएंगे। आपको या किसी को भी, हमें रोकने का कोई हक नहीं। आप अपने सवारों, संगीनों और बन्दूकों के जोर से हमें रोकना चाहते हैं, रोक लीजिए, मगर आप हमें लौटा नहीं सकते। न जाने वह दिन कब आएगा, जब हमारे भाई –बंद ऐसे हुक्मों की तामील करने से साफ इनकार कर देंगे, जिनकी मंशा महज कौम को गुलामी की जंजीरों में जकड़े रखना है।
बीरबल ग्रेजुएट था। उसका बाप सुपरिटेंडेंट पुलिस था। उसकी नस-नस में रोब भरा हुआ था। अफसरों की दृष्टि में उसका बड़ा सम्मान था। खासा गोरा चिट्टा, नीली आंखों और भूरे बालों वाला तेजस्वी पुरुष था। शायद जिस वक्त वह कोट पहन कर ऊपर से हैट लगा लेता तो वह भूल जाता था कि मैं भी यहां का रहने वाला हूं। शायद वह अपने को राज्य करने वाली जाति का अंग समझने लगता था, मगर इब्राहिम के शब्दों में जो तिरस्कार भरा हुआ था, उसने जरा देर के लिए उसे लज्जित कर दिया। पर मुआमला नाजुक था। जुलूस को रास्ता दे देता है, तो जवाब तलब हो जाएगा, वहीं खड़ा रहने दता है, तो यह सब न जाने कब तक खड़े रहें। इस संकट में पड़ा हुआ था कि उसने डीएसपी को घोड़े पर आते देखा। अब सोच-विचार का समय न था। यही मौका था कारगुजारी दिखाने का। उसने कमर से बेटन निकाल लिया और घोड़े को एड़ लगाकर जुलूस पर चढ़ाने लगा। उसे देखते ही और सवारों ने भी घोड़ों को जुलूस पर चढ़ाना शुरू कर दिया। इब्राहिम दारोगा के घोड़े के सामने खड़ा था। उसके सिर पर एक बेटन ऐसे जोर से पड़ा कि उसकी आंखें तिलमिला गईं। खड़ा न रहा सका। सिर पकड़ कर बैठ गया। उसी वक्त दारोगा जी के घोड़े ने दोनों पांव उठाए और ज़मीन पर बैठा हुआ इब्राहिम उसके टापों के नीचे आ गया। जुलूस अभी तक शांत खड़ा था। इब्राहिम को गिरते देख कर कई आदमी उसे उठाने के लिए लपके, मगर कोई आगे न बढ़ सका। उधर सवारों के डंडे बड़ी निर्दयता से पड़ रहे थे। लोग हाथों पर डंडों को रोकते थे और अविचलित रूप से खड़े थे। हिंसा के भावों में प्रभावित न हो जाना उसके लिए प्रतिक्षण कठिन होता जाता था। जब आघात और अपमान ही सहना है, तो फिर हम भी इस दीवार को पार करने की क्यों न चेष्टा करें? लोगों को खयाल आया, शहर के लाखों आदमियों की निगाहे हमारी तरफ लगी हुई हैं। यहां से यह झंडा लेकर हम लौट जाएं, तो फिर किस मुंह से आजादी का नाम लेंगे, मगर प्राण-रक्षा के लिए भागने का किसी को ध्यान भी न आता था। यह पेट के भक्तों, किराए के टट्टुओं का दल न था। यह स्वाधीनता के सच्चे स्वयंसेवकों का, आजादी के दीवानों का संगठित दल था- अपनी जिम्मेदारियों को खूब समझता था। कितने ही के सिरों से खून जारी था, कितने ही के हाथ जख्मी हो गए थे। एक हल्ले में यह लोग सवारों की सफ़ो को चीर सकते थे, मगर पैरों में बेड़ियां पड़ी हुई थीं- सिद्धांत की, धर्म की, आदर्श की।
दस-बारह मिनट तक यों ही डंडों की बौछार होती रही और लोग शांत खड़े रहे।
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इस मार-धाड़ की खबर एक क्षण में बाजार में जा पहुंची। इब्राहिम घोड़े से कुचल गए, कई आदमी जख्मी हो गए, कई के हाथ टूट गए, मगर न वे लोग पीछे फिरते हैं और न पुलिस उन्हें आगे जाने देती है।
मैकू ने उत्तेजित होकर कहा- अब तो भाई, यहां नहीं रही जाता। मैं भी चलता हूं।
दीनदयाल ने कहा- हम भी चलते हैं भाई, देखी जाएगी।
शंभू एक मिनट तक मौन खड़ा रहा। एकाएक उसने भी दुकान बढ़ाई और बोला- एक दिन तो मरना ही हैं, जो कुछ होना है, हो। आखिर वे लोग सभी के लिए तो जान दे रहे हैं। देखते-देखते अधिकांश दुकानें बंद हो गईं। वह लोग, जो दस मिनट पहले तमाशा देख रहे थे इधर-उधर से दौड़ पड़े और हजारों आदमियों का एक विराट दल घटना-स्थल की ओर चला। यह उन्मत्त, हिंसामद से भरे हुए मनुष्यों का समूह था, जिसे सिद्धान्त और आदर्श की परवाह न थी। जो मरने के लिए ही नहीं मारने के लिए भी तैयार थे। कितनों ही के हाथों में लाठियां थी, कितने ही जेबों में पत्थर भरे हुए थे। न कोई किसी से कुछ बोलता था, न पूछता था। बस, सबके सब मन में एक दृढ़ संकल्प किए लपके चले जा रहे थे, मानो कोई घटा उमड़ी चली आती हो।
इस दल को दूर से दखते ही सवारों में कुछ हलचल पड़ी। बीरबल सिंह के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। डीएसपी ने अपनी मोटर बढ़ाई। शांति और अहिंसा के व्रतधारियों पर डंडे बरसाना और बात थी, एक उन्मत्त दल से मुकाबला करना दूसरी बात। सवार और सिपाही पीछे खिसक गए।
इब्राहिम की पीठ पर घोड़े ने टाप रख दी। वह अचेत जमीन पर पड़े थे। इन आदमियों का शोरगुल सुन कर आप ही आप उनकी आंखें खुल गईं। एक युवक को इशारे से बुलाकर कहा– क्यों कैलाश, क्या कुछ लोग शहर से आ रहे हैं।
कैलाश ने उस बढ़ती हुई घटा की ओर देखकर कहा- जी हां, हजारों आदमी है।
इब्राहिम- तो अब खैरियत नहीं है। झंडा लौटा दो। हमें फौरन लौट चलना चाहिए, नहीं तूफान मच जाएगा। हमें अपने भाइयों से लड़ाई नहीं करनी है। फौरन लौट चलो।
यह कहते हुए उन्होंने उठने की चेष्टा की, मगर उठ न सके।
इशारे की देर थी। संगठित सेना की भांति लोग हुक्म पाते ही पीछे फिर गए। झंडियों के बांसों, साफों और रुमालों से चटपट एक स्ट्रेचर तैयार हो गया। इब्राहिम को लोगों ने उस पर लिटा दिया और पीछे फिरे। मगर क्या वह परास्त हो गए थे? अगर कुछ लोगों को उन्हें परास्त मानने में ही संतोष हो, तो हो, लेकिन वास्तव में उन्होंने एक युगांतकारी विजय प्राप्त की थी। वे जानते थे, हमारा संघर्ष अपने ही भाइयों से है, जिनके हित परिस्थितियों के कारण हमारे हितों से भिन्न है। हमें उनसे वैर नहीं करना है। फिर, वह यह भी नहीं चाहते कि शहर में लूट और दंगे का बाजार गर्म हो जाए और हमारे धर्मयुद्ध का अंत लूटी हुई दुकानें, फूटे हुए सिर हों, उनकी विजय का सबसे उज्ज्वल चिन्ह यह था कि उन्होंने जनता की सहानुभूति प्राप्त कर ली थी। वही लोग, जो पहले उन पर हंसते थे, उनका धैर्य और साहस देख कर उनकी सहायता के लिए निकल पड़े थे। मनोवृति का यह परिवर्तन ही हमारी असली विजय है। हमें किसी से लड़ाई करने की जरूरत नहीं, हमारा उद्देश्य केवल जनता की सहानुभूति प्राप्त करना है, उसकी मनोवृतियों का बदल देना है। जिस दिन हम इस लक्ष्य पर पहुंच जाएंगे, उसी दिन स्वराज्य सूर्य उदय होगा।
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तीन दिन गुजर गए थे। बीरबल सिंह अपने कमरे में बैठे चाय पी रहे थे और उनकी पत्नी मिट्ठन बाई शिशु को गोद में लिए सामने खड़ी थीं।
बीरबल सिंह ने कहा- मैं क्या करता उस वक्त। पीछे डीएसपी खड़ा था। अगर उन्हें रास्ता दे देता तो अपनी जान मुसीबत में फंसती। मिट्ठन बाई ने सिर हिला कर कहा- तुम कम से कम इतना तो कर ही सकते थे कि उन पर डंडे न चलाने देते। तुम्हारा काम आदमियों पर डंडे चलाना है? तुम ज्यादा से ज्यादा उन्हें रोक सकते थे। कल को तुम्हें अपराधियों को बेंत लगाने का काम दिया जाए, तो शायद तुम्हें बड़ा आनंद आएगा, क्यों। बीरबल सिंह ने खिसिया कर कहा- तुम तो बात नहीं समझती हो!
मिट्ठन बाई- मैं खूब समझती हूं। डीएसपी पीछे खड़ा था। तुमने सोचा होगा ऐसी कारगुजारी दिखाने का अवसर शायद फिर कभी मिले या न मिले। क्या तुम समझते हो, उस दल में कोई भला आदमी न था? उसमें कितने आदमी ऐसे थे, जो तुम्हारे जैसों को नौकर रख सकते है। विद्या में तो शायद अधिकांश तुमसे पढ़े हुए होंगे। मगर तुम उन पर डंडे चला रहे थे और उन्हें घोड़े से कुचल रहे थे, वाह री जवांमर्दी !
बीरबल सिंह ने बेहयाई की हंसी के साथ कहा- डीएसपी ने मेरा नाम नोट कर लिया है। सच !
दारोगा जी ने समझा था कि यह सूचना देकर वह मिट्ठन बाई को खुश कर देंगे। सज्जनता और भलमनसी आदि ऊपर की बातें हैं, दिल से नहीं, जबान से कही जाती है। स्वार्थ दिल की गहराइयों में बैठा होता है। वह गम्भीर विचार का विषय है।
मगर मिट्ठन बाई के मुख पर हर्ष की कोई रेखा न नजर आयी, ऊपर की बातें शायद गहराइयों तक पहुंच गईं थीं ! बोलीं—जरूर कर लिया होगा और शायद तुम्हें जल्दी तरक्की भी मिल जाए। मगर बेगुनाहों के खून से हाथ रंग कर तरक्की पायी, तो क्या पायी! यह तुम्हारी कारगुजारी का इनाम नहीं, तुम्हारे देशद्रोह की कीमत है। तुम्हारी कारगुजारी का इनाम तो तब मिलेगा, जब तुम किसी खूनी को खोज निकालोगे, किसी डूबते हूए आदमी को बचा लोगे।
एकाएक एक सिपाही ने बरामदे में खड़े हो कर कहा- हुजूर, यह लिफाफा लाया हूं। बीरबल सिंह ने बाहर निकलकर लिफाफा ले लिया और भीतर की सरकारी चिट्ठी निकाल कर पढ़ने लगे। पढ़ कर उसे मेज पर रख दिया।
मिट्ठन ने पूछा- क्या तरक्की का परवाना आ गया?
बीरबल सिंह ने झेंप कर कहा- तुम तो बनाती हो! आज फिर कोई जुलूस निकलने वाला है। मुझे उसके साथ रहने का हुक्म हुआ है।
मिट्ठन- फिर तो तुम्हारी चांदी है। तैयार हो जाओ। आज फिर वैसे ही शिकार मिलेंगे। खूब बढ़-बढ़ कर हाथ दिखलाना! डीएसपी भी जरूर आएंगे। अबकी तुम इंसपेक्टर हो जाओगे। सच!
बिरबल सिंह ने माथा सिकोड़ कर कहा- कभी-कभी तुम बे सिर-पैर की बातें करने लगती हो। मान लो, मै जाकर चुपचाप खड़ा रहूं, तो क्या नतीजा होगा। मैं नालायक समझा जाऊंगा और मेरी जगह कोई दूसरा आदमी भेज दिया जाएगा। कहीं शुबहा हो गया कि मुझे स्वराज्यवादियों से सहानुभूति है, तो कहीं का न रहूंगा। अगर बर्खासत भी न हुआ तो लैन की हाजिरी तो हो ही जाएगी। आदमी जिस दुनिया में रहता है, उसी का चलन देखकर काम करता है। मैं बुद्धिमान न सही, पर इतना जानता हूं कि ये लोग देश और जाति का उद्धार करने के लिए ही कोशिश कर रहे है। यह भी जानता हूं कि सरकार इस ख्याल को कुचल डालना चाहती है। ऐसा गधा नहीं हूं कि गुलामी की जिंदगी पर गर्व करूं, लेकिन परिस्थिति से मजबूर हूं।
बाजे की आवाज कानों में आयी। बीरबल सिंह ने बाहर जाकर पूछा। मालूम हुआ स्वराज्य वालों का जुलूस आ रहा है। चटपट वर्दी पहनी, साफा बांधा और जेब में पिस्तौर रख कर बाहर आए। एक क्षण में घोड़ा तैयार हो गया। कान्सटेबल पहले ही से तैयार बैठे थे। सब लोग डबल मार्च करते हुए जुलूस की तरफ चले।
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ये लोग डबल मार्च करते हुए कोई पन्द्रह मिनट में जुलूस के सामने पहुंच गए। इन लोगों को देखते ही अगणित कंठों से ‘वंदेमातरम्’ की एक ध्वनि निकली, मानों मेघमंडल में गर्जन का शब्द हुआ हो, फिर सन्नाटा छा गया। उस जुलूस में और इस जुलूस में कितना अंतर था! वह स्वराज्य के उत्सव का जुलूस था, यह एक शहीद के मातम का। तीन दिन के भीषण ज्वर और वेदना के बाद आज उस जीवन का अंत हो गया, जिसने कभी पद की लालसा नहीं की, कभी अधिकार के सामने सिर नहीं झुकाया। उन्होंने मरते समय वसीयत की थी कि मेरी लाश को गंगा में नहला कर दफन किया जाए और मेरे मजार पर स्वराज्य का झंडा खड़ा किया जाए। उनके मरने का समाचार फैलते ही सारे शहर पर मातम का पर्दा-सा पड़ गया। जो सुनता था, एक बार इस तरह चौंक पड़ता था। जैसे उसे गोली लग गई हो और तुरंत उनके दर्शनों के लिए भागता था। सारे बाजार बंद हो गए, इक्कों और तांगों का कहीं पता न था जैसे शहर लुट गया हो। देखते-देखते सारा शहर उमड़ पड़ा। जिस वक्त जनाजा उठा, लाख-सवालाख आदमी साथ थे। कोई आंख ऐसी न थी, जो आंसुओं से लाल न हो।
बीरबल सिंह अपने कांस्टेबलों और सवारों को पांच-पांच गज के फासले पर जुलूस के साथ चलने का हुक्म देकर खुद पीछे चले गएं। पिछली सफों में कोई पचास गज तक महिलाएं थीं। दारोगा ने उसकी तरफ ताका। पहली ही कतार में मिट्ठन बाई नजर आईं। बीरबल को विश्वास न आया। फिर ध्यान से देखा, वही थी। मिट्ठन ने उनकी तरफ एक बार देखा और आंखें फेर लीं, पर उसकी एक चितवन में कुछ ऐसा धिक्कार, कुछ ऐसी लज्जा, कुछ ऐसी व्यथा, कुछ ऐसी घृणा भरी हुई थी कि बीरबल सिंह की देह में सिर से पांव तक सनसनी –सी दौड़ गई। वह अपनी दृष्टि में कभी इतने हल्के, इतने दुर्बल इतने जलील न हुए थे।
सहसा एक युवती ने दारोगा जी की तरफ देख कर कहा – कोतवाल साहब कहीं हम लोगों पर डंडे न चला दीजिएगा। आपको देख कर भय हो रहा है!
दूसरी बोली- आप ही के कोई भाई तो थे, जिन्होंने उस माल के चौरस्ते पर इस पुरुष पर आघात किए थे।
मिट्ठन ने कहा – आपके कोई भाई न थे, आप खुद थे।
बीसियों ही मुंहों से आवाजें निकलीं- अच्छा, यह वही महाशय है? महाशय आपका नमस्कार है। यह आप ही की कृपा का फल है कि आज हम भी आपके डंडे के दर्शन के लिए आ खड़ी हुई है !
बीरबल ने मिट्ठनभाई की ओर आंखों का भाला चलाया, पर मुंह से कुछ न बोले। एक तीसरी महिला ने फिर कहा- हम एक जलसा करके आपको जयमाल पहनाएंगे और आपका यशोगान करेंगे।
चौथी ने कहा- आप बिलकुल अंगरेज मालूम होते हैं, जभी इतने गोरे हैं!
एक बुढ़िया ने आंखें चढ़ा कर कहा- मेरी कोख में ऐसा बालक जन्मा होता, तो उसकी गर्दन मरोड़ देती !
एक युवती ने उसका तिरस्कार करके कहा- आप भी खूब कहती हैं, माताजी, कुत्ते तक तो नमक का हक अदा करते हैं, यह तो आदमी हैं !
बुढ़िया ने झल्ला कर कहा- पेट के गुलाम, हाय पेट, हाय पेट !
इस पर कई स्त्रियों ने बुढ़िया को आड़े हाथों ले लिया और वह बेचारी लज्जित होकर बोली- अरे, मैं कुछ कहती थोड़े ही हूं। मगर ऐसा आदमी भी क्या, जो स्वार्थ के पीछे अंधा हो जाए।
बीरबल सिंह अब और न सुन सके। धोड़ा बढ़ा कर जुलूस से कई गज पीछे चले गए। मर्द लज्जित करता है, तो हमें क्रोध आता है, स्त्रियां लज्जित करती हैं, तो ग्लानि उत्पन्न होती है। बीरबल सिंह की इस वक्त इतनी हिम्मत न थी कि फिर उन महिलाओं के सामने जाते। अपने अफसरों पर क्रोध आया। मुझी को बार-बार क्यों इन कामों पर तैनात किया जाता है? और भी तो हैं, उन्हें क्यों नहीं लाया जाता ? क्या मैं ही सब से गया-बीता हूं। क्या मैं ही सबसे भावशून्य हूं।
मिट्ठी इस वक्त मुझे दिल मे कितना कायर और नीच समझ रही होगी? शायद इस वक्त मुझे इस वक्त मुझे कोई मार डाले, तो वह जबान भी न खोलेगीं। शायद मन में प्रसन्न होगी कि अच्छा हुआ। अभी कोई जाकर साहब से कह दे कि बीरबल सिंह की स्त्री जुलूस में निकली थी, तो कहीं का न रहूं ! मिट्ठी जानती है, समझती फिर भी निकल खड़ी हुई। मुझसे पूछा तक नहीं। कोई फिक्र नहीं है न, जभी ये बातें सूझती हैं, यहां सभी बेफिक्र हैं, कालेजों और स्कूलों के लड़के, मजदूर पेशेवर इन्हें क्या चिंता ? मरन तो हम लोगों की है, जिनके बाल-बच्चे हैं और कुल –मर्यादा का ध्यान हैं। सब की सब मेरी तरफ कैसा घुर रही थी, मानों खा जाएंगीं
जुलूस शहर की मुख्य सड़कों से गुजरता हुआ चला जा रहा था। दोनों ओर छतों पर, छज्जों पर, जंगलों पर, वृक्षों पर दर्शकों की दीवारें-सी खड़ी थी। बीरबल सिंह को आज उनके चेहरों पर एक नई स्फूर्ति, एक नया उत्साह, एक नया गर्व झलकता हुआ मालूम होता था। स्फूर्ति थी वृक्षों के चेहरे पर, उत्साह युवकों के और गर्व रमणियों के। यह स्वराज्य के पथ पर चलने का उल्लास था। अब उनको यात्रा का लक्ष्य अज्ञात न था, पथभ्रष्टों की भांति इधर-उधर भटकना न था, दलितों की भांति सिर झुका कर रोना न था। स्वाधीनता का सुनहला शिखर सुदूर आकाश में चमक रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि लोगों को बीच के नालों और जंगलों की परवाह नहीं हैं। सब उन सुनहले लक्ष्य पर पहुंचने के लिए उत्सुक हो रहे हैं।
ग्यारह बजते-बजते जुलूस नदी के किनारे जा पहुंचा, जनाजा उतारा गया और लोग शव को गंगा-स्नान कराने के लिए चले। उसके शीतल, शांत, पीले मस्तक पर लाठी की चोट साफ नजर आ रही थी। रक्त जम कर काला हो गया था। सिर के बड़े-बड़े बाल खून जम जाने से किसी चित्रकार की तूलिका की भांति चिमट गए थे। कई हजार आदमी इस शहीद के अंतिम दर्शनों के लिए, मंडल बांध कर खड़े हो गए। बीरबल सिंह पीछे घोड़े पर सवार खड़े थे। लाठी की चोट उन्हें भी नजर आयी। उनकी आत्मा ने जोर से धिक्कारा। वह शव की ओर न ताक सके। मुंह फेर लिया। जिस मनुष्य के दर्शनें के लिए, जिनके चरणों की रज मस्तक पर लगाने के लिए लाखों आदमी विकल हो रहे हैं उसका मैंने इतना अपमान किया। उनकी आत्मा इस समय स्वीकार कर रही थी कि उस निर्दय प्रहार में कर्तव्य के भाव का लेश भी न था- केवल स्वार्थ था, कारगुजारी दिखाने की हवस और अफसरों को खुश करने की लिप्सा थी। हजारों आंखें क्रोध से भरी हुई उनकी ओर देख रही थी, पर वह सामने ताकने का साहस न कर सकते थे।
एक कांस्टेबल ने आकर प्रशंसा की – हुजूर का हाथ गहरा पड़ा था। अभी तक खोपड़ी खुली हुई है। सबकी आंखें खुल गईं।
बीरबल ने उपेक्षा की – मैं इसे अपनी जवांमर्दी नहीं, अपना कमीनापन समझता हूं।
कांस्टेबल ने फिर खुशामद की –बड़ा सरकश आदमी था हुजूर !
बीरबल ने तीव्र भाव से कहा—चुप रहो ! जानते भी हो, सरकश किसे कहते है? सरकश वे कहलाते हैं, जो डाके मारते हैं, चोरी करते हैं, खून करते है। उन्हें सरकश नहीं कहते जो देश की भलाई के लिए अपनी जान हथेली पर लिए फिरते हों। हमारी बदनसीबी है कि जिनकी मदद करनी चाहिए उनका विरोध कर रहै हैं यह घमंड करने और खुश होने की बात नहीं है, शर्म करने और रोने की बात है। स्नान समाप्त हुआ। जुलूस यहां से फिर रवाना हुआ।
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शव को जब खाक के नीये सुला कर लोग लौटने लगे तो दो बज रहे थे। मिट्ठन कई स्त्रियों के साथ-साथ कुछ दूर तक तो आयी, पर क्वीन्स-पार्क में आकर ठिठक गई। घर जाने की इच्छा न हुई। वह जीर्ण, आहत, रक्तरंजित शव, मानों उसके विरक्त हो गया था कि अब उसे धिक्कारने की भी उसकी इच्छा न थी। ऐसे स्वार्थी मनुष्य पर भय के सिवा और किसी चीज का असर हो सकता है, इसका उसे विश्वास ही न था।
वह बड़ी देर तक पार्क में घास पर बैठी सोचती रही, पर अपने कर्तव्य का कुछ निश्चय न कर सकी। मैके जा सकती थी, किन्तु वहां से महीने दो महीने में फिर इसी घर आना पड़ेगा। नहीं मैं किसी की आश्रित न बनूंगी। क्या मैं अपने गुजर –बसर को भी नहीं कमा सकती ? उसने स्वयं भांति-भांति की कठिनाइयो की कल्पना की, पर आज उसकी आत्मा में न जाने इतना बल कहां से आ गया। इन कल्पनाओं का ध्यान में लाना ही उसे अपनी कमजोरी मालूम हुई।
सहसा उसे इब्राहिम अली की वृद्धा विधवा का खयाल आया। उसने सुना था, उनके लड़के –बाले नहीं हैं। बेचारी बैठी रो रही होंगी। कोई तसल्ली देना वाला भी पास न होगा। वह उनके मकान की ओर चलीं। पता उसने पहले ही अपने साथ की औरतों से पूछ लिया था। वह दिल में सोचती जाती थी –मैं उनसे कैसे मिलूंगी, उनसे क्या कहूंगी, उन्हें किन शब्दों में समझाऊंगी। इन्हीं विचारों में डूबी हुई वह इब्राहिम अली के घर पर पहुंच गई। मकान एक गली में था, साफ-सुथरा, लेकिन द्वार पर हसरत बरस रही थीं। उसने धड़कते हुए हृदय से अंदर कदम रखा। सामने बरामदे में एक खाट पर वह वृद्धा बैठी हुई थी, जिसके पति ने आज स्वाधीनता की वेदी पर अपना बलिदान दिया था। उसके सामने सादे कपड़े पहने एक युवक खड़ा, आंखों में आंसू भरे वृद्धा से बातें कर रहा था। मिट्ठन उस युवक को देखकर चौंक पड़ी- वह बीरबल सिंह थे।
उसने क्रोधमय आश्चर्य से पूछा- तुम यहां कैसे आए?
बीरबल सिंह ने कहा—उसी तरह जैसे तुम आईं। अपने अपराध क्षमा कराने आया हूं !
मिट्ठन के गोरे मुखड़े पर आज गर्व, उल्लास और प्रेम की जो उज्जवल विभूती नजर आयी, वह अकथनीय थी ! ऐसा जान पड़ा, मानों उसके जन्म-जन्मांतर के क्लेश मिट गए हैं, वह चिंता और माया के बंधनों से मुक्त हो गई है।
अंधेर
इस सिरीज की दूसरी कहानी है अंधेर। यह कहानी 1913 में पहली बार प्रकाशित हुई। इसमें ग्रामीण समाज में फैली अशिक्षा और इस अशिक्षा पर फलने-फूलने वाले सरकारी तंत्र का मार्मिक वर्णन है। इस कहानी में गांव के लोगों का पुलिसिया शोषण जिस तरह व्यक्त किया गया है, गांवों को जानने वाले बता देंगे कि आज 105 साल बाद भी गांव में शोषण की इबारत हूबहू वैसे ही लिखी जाती है।
अंधेर
नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जांघिए बनवाए। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदाएं गूंजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजाईं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आंगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं।
साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियां खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखलाना ही जिन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे: साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदार
और साठे के धोबी गाते: साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार। उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार।।
गरज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में मां दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा और ऐतिहासिक मौका यही नागपंचमी का दिन था। इस दिन के लिए साल भर तैयारियां होती रहती थीं। आज उनमें मार्के की कुश्ती होने वाली थी। साठे को गोपाल पर नाज था, पाठे को बलदेव का गर्रा। दोनों सूरमा अपने-अपने फरीक की दुआएं और आरजुएं लिए हुए अखाड़े में उतरे। तमाशाइयों पर चुम्बक का-सा असर हुआ। मौजें के चौकीदारों ने लट्ठ और डण्डों का यह जमघट देखा और मर्दों की अंगारे की तरह लाल आंखें तो पिछले अनुभव के आधार पर बेपता हो गए। इधर अखाड़े में दांव-पेंच होते रहे। बलदेव उलझता था, गोपाल पैंतरे बदलता था। उसे अपनी ताकत का जोम था, इसे अपने करतब का भरोसा। कुछ देर तक अखाड़े से ताल ठोंकने की आवाजें आती रहीं, तब यकायक बहुत-से आदमी खुशी के नारे मार-मार उछलने लगे, कपड़े और बर्तन और पैसे और बताशे लुटाये जाने लगे। किसी ने अपना पुराना साफा फेंका, किसी ने अपनी बोसीदा टोपी हवा में उड़ा दी साठे के मनचले जवान अखाड़े में पिल पड़े। और गोपाल को गोद में उठा लाये। बलदेव और उसके साथियों ने गोपाल को लहू की आँखों से देखा और दांत पीसकर रह गए।
2
दस बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर काली घटाएं छाई थीं। अंधेरे का यह हाल था कि जैसे रोशनी का अस्तित्व ही नहीं रहा। कभी-कभी बिजली चमकती थी मगर अंधेरे को और ज्यादा अंधेरा करने के लिए। मेंढकों की आवाजें जिन्दगी का पता देती थीं वर्ना और चारों तरफ मौत थी। खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपड़े और मकान इस अंधेरे में बहुत गौर से देखने पर काली-काली भेड़ों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीं। पावित्रात्मा बुड्ढे राम नाम न जपते थे।
मगर आबादी से बहुत दूर कई पुरशोर नालों और ढाक के जंगलों से गुजरकर ज्वार और बाजरे के खेत थे और उनकी मेंड़ों पर साठे के किसान जगह-जगह मड़ैया ड़ाले खेतों की रखवाली कर रहे थे। तले जमीन, ऊपर अंधेरा, मीलों तक सन्नाटा छाया हुआ। कहीं जंगली सुअरों के गोल, कहीं नीलगायों के रेवड़, चिलम के सिवा कोई साथी नहीं, आग के सिवा कोई मददगार नहीं। जरा खटका हुआ और चौंके पड़े। अंधेरा भय का दूसरा नाम है, जब मिट्टी का एक ढेर, एक ठूंठा पेड़ और घास का ढेर भी जानदार चीजें बन जाती हैं। अंधेरा उनमें जान ड़ाल देता है। लेकिन यह मजबूत हाथोंवाले, मजबूत जिगरवाले, मजबूत इरादे वाले किसान हैं कि यह सब सख्तियां। झेलते हैं ताकि अपने ज्यादा भाग्यशाली भाइयों के लिए भोग-विलास के सामान तैयार करें। इन्हीं रखवालों में आज का हीरो, साठे का गौरव गोपाल भी है जो अपनी मड़ैया में बैठा हुआ है और नींद को भगाने के लिए धीमें सुरों में यह गीत गा रहा है: मैं तो तोसे नैना लगाय पछतायी रे
अचाकन उसे किसी के पांव की आहट मालूम हुई। जैसे हिरन कुत्तों की आवाजों को कान लगाकर सुनता है उसी तरह गोपल ने भी कान लगाकर सुना। नींद की औंघाई दूर हो गई। लट्ठ कंधे पर रक्खा और मड़ैया से बाहर निकल आया। चारों तरफ कालिमा छाई हुई थी और हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही थीं। वह बाहर निकला ही था कि उसके सर पर लाठी का भरपूर हाथ पड़ा। वह त्योराकर गिरा और रात भर वहीं बेसुध पड़ा रहा। मालूम नहीं उस पर कितनी चोटें पड़ीं। हमला करनेवालों ने तो अपनी समझ में उसका काम तमाम कर ड़ाला। लेकिन जिन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द लोग थे जिन्होंने अंधेरे की आड़ में अपनी हार का बदला लिया था।
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गोपाल जाति का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बिलकुल अक्खड़। दिमागा रौशन ही नहीं हुआ तो शरीर का दीपक क्यों घुलता। पूरे छह फुट का कद, गठा हुआ बदन, ललकान कर गाता तो सुननेवाले मील भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा लेते। गाने-बजाने का आशिक, होली के दिनों में महीने भर तक गाता, सावन में मल्हार और भजन तो रोज का शगल था। निड़र ऐसा कि भूत और पिशाच के अस्तित्व पर उसे विद्वानों जैसे संदेह थे। लेकिन जिस तरह शेर और चीते भी लाल लपटों से डरते हैं उसी तरह लाल पगड़ी से उसकी रूह असाधारण बात थी लेकिन उसका कुछ बस न था। सिपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन में उसके दिल पर खींची गई थी, पत्थर की लकीर बन गई थी। शरारतें गईं, बचपन गया, मिठाई की भूख गई लेकिन सिपाही की तस्वीर अभी तक कायम थी। आज उसके दरवाजे पर लाल पगड़ीवालों की एक फौज जमा थी लेकिन गोपाल जख्मों से चूर, दर्द से बेचैन होने पर भी अपने मकान के अंधेरे कोने में छिपा हुआ बैठा था। नम्बरदार और मुखिया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढंग से खड़े दारोगा की खुशामद कर रहे थे। कहीं अहीर की फरियाद सुनाई देती थी, कहीं मोदी रोना-धोना, कहीं तेली की चीख-पुकार, कहीं कमाई की आँखों से लहू जारी। कलवार खड़ा अपनी किस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की गर्मबाजारी थी। दारोगा जी निहायत कारगुजार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सुबह को चारपाई से उठते ही गालियों का वजीफा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फरियाद की-हुजूर, अण्डे नहीं हैं, दारोगाजी हण्टर लेकर दौड़े औश्र उस गरीब का भुरकुस निकाल दिया। सारे गॉँव में हलचल पड़ी हुई थी। कांसिटेबल और चौकीदार रास्तों पर यों अकड़ते चलते थे गोया अपनी ससुराल में आए हैं। जब गॉँव के सारे आदमी आ गए तो वारदात हुई और इस कम्बख्त गोलाल ने रपट तक न की।
मुखिया साहब बेंत की तरह कांपते हुए बोले-हुजूर, अब माफी दी जाए।
दारोगाजी ने गाजबनाक निगाहों से उसकी तरफ देखकर कहा-यह इसकी शरारत है। दुनिया जानती है कि जुर्म को छुपाना जुर्म करने के बराबर है। मैं इस बदकाश को इसका मजा चखा दूंगा। वह अपनी ताकत के जोम में भूला हुआ है, और कोई बात नहीं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
मुखिया साहब ने सिर झुकाकर कहा-हुजूर, अब माफी दी जाए।
दारोगाजी की त्योरियां चढ़ गईं और झुंझलाकर बोले-अरे हजूर के बच्चे, कुछ सठिया तो नहीं गया है। अगर इसी तरह माफी देनी होती तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा था कि यहां तक दौड़ा आता। न कोई मामला, न ममाले की बात, बस माफी की रट लगा रक्खी है। मुझे ज्यादा फुरसत नहीं है। नमाज पढ़ता हूं, तब तक तुम अपना सलाह मशविरा कर लो और मुझे हँसी-खुशी रुखसत करो वर्ना गौसखॉँ को जानते हो, उसका मारा पानी भी नही मॉँगता!
दारोगा तकवे व तहारत के बड़े पाबंद थे पांचों वक्त की नमाज पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में धूमधाम से कुर्बानियां होतीं। इससे अच्छा आचरण किसी आदमी में और क्या हो सकता है!
4
मुखिया साहब दबे पांव गुपचुप ढंग से गौरा के पास और बोले-यह दारोगा बड़ा काफिर है, पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अब्बल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा, हुजूर, गरीब आदमी है, घर में कुछ सुभीता नहीं, मगर वह एक नहीं सुनता।
गौरा ने घूंघट में मुंह छिपाकर कहा-दादा, उनकी जान बच जाए, कोई तरह की आंच न आने पाए, रुपए-पैसे की कौन बात है, इसी दिन के लिए तो कमाया जाता है।
गोपाल खाट पर पड़ा सब बातें सुन रहा था। अब उससे न रहा गया। लकड़ी गांठ ही पर टूटती है। जो गुनाह किया नहीं गया वह दबता है मगर कुचला नहीं जा सकता। वह जोश से उठ बैठा और बोला-पचास रुपए की कौन कहे, मैं पचास कौड़ियां भी न दूँगा। कोई गदर है, मैंने कसूर क्या किया है?
मुखिया का चेहरा फक हो गया। बड़प्पन के स्वर में बोले-धीरे बोलो, कहीं सुन ले तो गजब हो जाए।
लेकिन गोपाल बिफरा हुआ था, अकड़कर बोला-मैं एक कौड़ी भी न दूंगा। देखें कौन मेरे फांसी लगा देता है।
गौरा ने बहलाने के स्वर में कहा-अच्छा, जब मैं तुमसे रुपए मांगूं तो मत देना। यह कहकर गौरा ने, जो इस वक्त लौड़ी के बजाए रानी बनी हुई थी, छप्पर के एक कोने में से रुपयों की एक पोटली निकाली और मुखिया के हाथ में रख दी। गोपाल दांत पीसकर उठा, लेकिन मुखिया साहब फौरन से पहले सरक गए। दारोगा जी ने गोपाल की बातें सुन ली थीं और दुआ कर रहे थे कि ऐ खुदा, इस मरदूद के दिल को पलट। इतने में मुखिया ने बाहर आकर पचीस रूपये की पोटली दिखाई। पचीस रास्ते ही में गायब हो गए थे। दारोगा जी ने खुदा का शुक्र किया। दुआ सुनी गई। रुपया जेब में रक्खा और रसद पहुँचाने वालों की भीड़ को रोते और बिलबिलाते छोड़कर हवा हो गए। मोदी का गला घुंट गया। कसाई के गले पर छुरी फिर गई। तेली पिस गया। मुखिया साहब ने गोपाल की गर्दन पर एहसान रक्खा गोया रसद के दाम गिरह से दिए। गांव में सुर्खरू हो गया, प्रतिष्ठा बढ़ गई। इधर गोपाल ने गौरा की खूब खबर ली। गाँव में रात भर यही चर्चा रही। गोपाल बहुत बचा और इसका सेहरा मुखिया के सिर था। बड़ी विपत्ति आई थी। वह टल गई। पितरों ने, दीवान हरदौल ने, नीम तलेवाली देवी ने, तालाब के किनारे वाली सती ने, गोपाल की रक्षा की। यह उन्हीं का प्रताप था। देवी की पूजा होनी जरूरी थी। सत्यनारायण की कथा भी लाजिमी हो गई।
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फिर सुबह हुई लेकिन गोपाल के दरवाजे पर आज लाल पगड़ियों के बजाए लाल साड़ियों का जमघट था। गौरा आज देवी की पूजा करने जाती थी और गांव की औरतें उसका साथ देने आई थीं। उसका घर सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू से महक रहा था जो खस और गुलाब से कम मोहक न थी। औरतें सुहाने गीत गा रही थीं। बच्चे खुश हो-होकर दौड़ते थे। देवी के चबूतरे पर उसने मिटटी का हाथी चढ़ाया। सती की मॉँग में सेंदुर डाला। दीवान साहब को बताशे और हलुआ खिलाया। हनुमान जी को लड्डू से ज्यादा प्रेम है, उन्हें लड्डू चढ़ाये तब गाती बजाती घर को आयी और सत्यनारायण की कथा की तैयारियॉँ होने लगीं। मालिन फूल के हार, केले की शाखें और बंदनवारें लाईं। कुम्हार नये-नये दिए और हॉँडियाँ दे गया। बारी हरे ढाक के पत्तल और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाल और गौरा के लिए दो नई-नई पीढ़ियां बनाईं। नाइन ने आंगन लीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बंदनवारें बंध गईं। आंगन में केले की शाखें गड़ गईं। पण्डित जी के लिए सिंहासन सज गया। आपस के कामों की व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने निश्चित दायरे पर चलने लगी। यही व्यवस्था संस्कृति है जिसने देहात की जिन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है। लेकिन अफसोस है कि अब ऊँच-नीच की बेमतलब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कर्तव्यों को सौहार्द्र सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान और नीचता का दागालगा दिया है।
शाम हुई। पण्डित मोटेरामजी ने कन्धे पर झोली डाली, हाथ में शंख लिया और खड़ाऊँ पर खटपट करते गोपाल के घर आ पहुँचे। आंगन में टाट बिछा हुआ था। गॉँव के प्रतिष्ठित लोग कथा सुनने के लिए आ बैठे। घण्टी बजी, शंख फुंका गया और कथा शुरू हुईं। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में फूंका गया और कथा शुरू हुई। गोजाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था। मुखिया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमदर्दी के उससे कहा—सत्यनारायण क महिमा थी कि तुम पर कोई आंच न आई।
गोपाल ने अंगड़ाई लेकर कहा—सत्यनारायण की महिमा नहीं, यह अंधेर है।
इस्तीफा
इस सीरीज की तीसरी और आखिरी कहानी है इस्तीफा। ये एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसका जीवन घर से दफ्तर तक सीमित है। लेकिन जब वह बड़े ऑफिसर के हाथों अपमानित होता है तो उसका स्वाभिमान जाग जाता है।
इस्तीफा
दफ्तर का बाबू एक बेजबान जीव है। मजदूरों को आंखें दिखाओ, तो वह त्योरियां बदल कर खड़ा हो जाए। कुली को एक डांट बताओं, तो सिर से बोझ फेंक कर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारों, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की निगहा से देख कर चला जाएगा। यहां तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दो लत्तियां झड़ने लगता हे, मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे आंखे दिखाएं, डांट बताएं, दुत्कारें या ठोकरें मारों, उसक माथे पर बल न आएगा। उसे अपने विकारों पर जो अधिपत्य होता हे, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, गरज उसमें तमाम मानवी अच्छाइयां मौजूद होती हें। खंडहर के भी एक दिन भग्य जाते हे दीवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती हे, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अंधेरी तकदीर में रोशनी का जलावा कभी नहीं दिखाई देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुस्कराहट की रोशनी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन हे, कभी हरा भादों नहीं। लाला फतहचंद ऐसे ही एक बेजबान जीव थे।
कहते हें, मनुष्य पर उसके नाम का भी असर पड़ता है। फतहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी। यदि उन्हें ‘हारचंद’ कहा जाए तो कदाचित यह अत्युक्ति न होगी। दफ्तर में हार, जिंदगी में हार, मित्रों में हार, जीवन में उनके लिए चारों ओर निराशाएं ही थीं। लड़का एक भी नहीं, लड़कियां थीं, भाई एक भी नहीं, भौजाइयां दो, गांठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में आया ओर मुरव्वत, सच्चा मित्र एक भी नहीं—जिससे मित्रता हुई, उसने धोखा दिया, इस पर तंदुरस्ती भी अच्छी नहीं—बत्तीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गए थे। आंखों में ज्योंति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल चिपके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत। नौ बजे दफ्तर जाते और छ: बजे शाम को लौट कर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है, इसकी उन्हें बिलकुल खबर न थी। उनकी दुनिया लोक-परलोक जो कुछ था, दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिंदगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद एक मुद्दत गुजर गई थी।
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जाड़ो के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। फतहचंद साढ़े पांच बजे दफ्तर से लौटै तो चिराग जल गए थे। दफ्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते, चुपके से चारपाई पर लेट जाते और पंद्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते तब कहीं जाकर उनके मुँह से आवाज निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा तो मालूम हुआ कि दफ्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुंह-हाथ धाने के लिए लोटा-गिलास मांज रही थी। बोली—उससे कह दे, क्या काम है। अभी तो दफ्तर से आए ही हैं, और बुलावा आ गया है?
चपरासी ने कहा है, अभी फिर बुला लाओ। कोई बड़ा जरूरी काम है।
फतहचंद की खामोशी टूट गई। उन्होंने सिर उठा कर पूछा—क्या बात है?
शारदा—कोई नहीं दफ्तर का चपरासी है।
फतहचंद ने सहम कर कहा—दफ्तर का चपरासी! क्या साहब ने बुलाया है?
शारदा—हां, कहता हे, साहब बुला रहे है। यह कैसा साहब है तुम्हारा जब देखा, बुलाया करता है? सबेरे के गए-गए अभी मकान लौटे हो, फिर भी बुलाया आ गया!
फतहचंद न संभल कर कहा—जरा सुन लूं, किसलिए बुलाया है। मैंने सब काम खतम कर दिया था, अभी आता हूं।
शारदा—जरा जलपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेंगी।
यह कह कर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट ओर सेव लायी। फतहचंद उठ कर खड़े हो गए, किन्तु खाने की चीजें देख कर चारपाई पर बैठ गए और प्याली की ओर चाव से देख कर डरते हुए बोले—लड़कियों को दे दिया है न?
शारदा ने आंखे चढ़ाकर कहा— हां, हां, दे दिया है, तुम तो खाओ।
इतने में छोटी में चपरासी ने फिर पुकार—बाबू जी, हमें बड़ी देर हो रही हैं।
शारदा—कह क्यों नहीं देते कि इस वक्त न आएंगे।
फतेहचन्द ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फंकियां लगायी, एक गिलास पानी पिया ओर बाहर की तरफ दौड़े। शारदा पान बनाती ही रह गई।
चपरासी ने कहा—बाबू जी! आपने बड़ी देर कर दी। अब जरा लपके चलिए, नहीं तो जाते ही डांट बताएगा।
फतेहचन्द ने दो कदम दौड़ कर कहा— चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह चाहे डांट लगाएं या दांत दिखाएं। हमसे दौड़ा नहीं जाता। बंगले ही पर है न?
चपरासी— भला, वह दफ्तर क्यों आने लगा। बादशाह है कि दिल्लगी?
चपरासी तेज चलने का आदी था। बेचारे बाबू फतेहचन्द धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी ही दूर चल कर हांफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके कदम उठातें जाते थें यहां तक कि जांघो में दर्द होने लगा और आधा रास्ता खतम होते-होते पैरों ने उठने से इनकार कर दिया। सारा शरीर पसीने से तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आंखों के सामने तितलियां उड़ने लगीं।
चपरासी ने ललकारा—जरा कदम बढ़ाय चलो, बाबू!
फतेहचन्द बड़ी मुश्किल से बोले— तुम जाओ, मैं आता हूं।
वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गए ओर सिर को दोनों हाथों से थाम कर दम मारने लगें चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फतेहचन्द डरे कि यह शैतान जाकर न- जाने साहब से क्या कह दे, तो गजब ही हो जाएगा। जमीन पर हाथ टेक कर उठे ओर फिर चलें मगर कमजोरी से शरीर हांफ रहा था। इस समय कोई बच्चा भी उन्हें जमीन पर गिरा सकता था। बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब बंगले पर पहुंचे। साहब बंगले पर टहल रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ देखते थे और किसी को अतो न देख कर मन में झल्लाते थे।
चपरासी को देखते ही आंखें निकाल कर बोल— इतनी देर कहां था?
चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा—हुजूर! जब वह आएं तब तो, मैं दौड़ा चला आ रहा हूं।
साहब ने पेर पटक कर कहा— बाबू क्या बोला?
चपरासी— आ रहे हे हुजूर, घंटा-भर में तो घर में से निकले।
इतने में फतेहचन्द अहाते के तार के अंदर से निकल कर वहां आ पहुंचे और साहब को सिर झुक कर सलाम किया।
साहब ने कड़कर कहा—अब तक कहां था?
फतेहचन्द ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका खून सूख गया। बोले—हुजूर, अभी-अभी तो दफ्तर से गया हूं, ज्यों ही चपरासी ने आवाज दी, हाजिर हुआ।
साहब—झूठ बोलता है, झूठ बोलता है, हम घंटे-भर से खड़ा है।
फतेहचन्द— हुजूर, मैं झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर हो गई हो, मगर घर से चलने में मुझे बिल्कुल देर नहीं हुई।
साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा—चुप रह सूअर, हम घण्टा-भर से खड़ा हे, अपना कान पकड़ो!
फतेहचन्द ने खून की घूंट पीकर कहा—हुजूर मुझे दस साल काम करते हो गए, कभी....
साहब—चुप रह सूअर, हम कहता है कि अपना कान पकड़ो!
फतेहचन्द—जब मैंने कोई कुसूर किया हो?
साहब—चपरासी! इस सूअर का कान पकड़ो।
चपरासी ने दबी जबान से कहा—हुजूर, यह भी मेरे अफसर है, मैं इनका कान कैसे पकडूं?
साहब—हम कहता है, इसका कान पकड़ो, नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा।
चपरासी—हुजूर, मैं यहां नौकरी करने आया हूं, मार खाने नहीं। मैं भी इज्जतदार आदमी हूं। हुजूर, अपनी नौकरी ले लें! आप जो हुक्म दें, वह बजा लाने को हाजिर हूं, लेकिन किसी की इज्जत नहीं बिगाड़ सकता। नौकरी तो चार दिन की है। चार दिन के लिए क्यों जमाने-भर से बिगाड़ करें।
साहब अब क्रोध को न बर्दाश्त कर सके। हंटर लेकर दौड़े। चपरासी ने देखा, यहां खड़े रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ। फतेहचन्द अभी तक चुपचाप खड़े थे। चपरासी को न पाकर उनके पास आया और उनके दोनों कान पकड़कर हिला दिया। बोला—तुम सूअर गुस्ताखी करता है? जाकर आफिस से फाइल लाओ।
फतेहचन्द ने कान हिलाते हुए कहा—कौन-सा फाइल? तुम बहरा है सुनता नहीं? हम फाइल मांगता है।
फतेहचन्द ने किसी तरह दिलेर होकर कहा—आप कौन-सा फाइल मांगते हैं?
साहब—वही फाइल जो हम मांगता हे। वही फाइल लाओ। अभी लाओं बेचारे फतेहचन्द को अब और कुछ पूछने की हिम्मत न हुई। साहब बहादुर एक तो यों ही तेज-मिजाज थे, इस पर हुकूमत का घमंड और सबसे बढ़कर शराब का नशा। हंटर लेकर पिल पड़ते, तो बेचार क्या कर लेते? चुपके से दफ्तर की तरफ चल पड़े।
साहब ने कहा—दौड़ कर जाओ। दौड़ो।
फतेहचन्द ने कहा—हुजूर, मुझसे दौड़ा नहीं जाता।
साहब—ओ, तुम बहुत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखाएगा। दौड़ो (पीछे से धक्का देकर) तुम अब भी नहीं दौड़ेगा?
यह कह कर साहब हंटर लेने चले। फतेहचन्द दफ्तर के बाबू होने पर भी मनुष्य ही थे। यदि वह बलवान होंते, तो उस बदमाश का खून पी जाते। अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर जरूर चला देते, लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तकदीर में लिखा था। वे बेतहाश भागे और फाटक से बाहर निकल कर सड़क पर आ गए।
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फतेहचन्द दफ्तर न गए। जाकर करते ही क्या? साहब ने फाइल का नाम तक न बताया। शायद नशा में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले, मगर इस बेइज्जती ने पैरों में बेड़िया-सी डाल दी थीं। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे, उनके हाथ में कोई चीज भी न थी, लेकिन क्या वह उसकी बातों का जवाब न दे सकते थे? उनके पैरो में जूते तो थे। क्या वह जूते से काम न ले सकते थे? फिर क्यों उन्होंने इतनी जिल्लत बर्दाश्त की?
मगर इलाज की क्या था? यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता, तो उसका क्या बिगड़ता। शायद एक-दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है, दो-चार सौ रुपए जुर्माना हो जाता। मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके दरवाजे हाथ फैलाते? यदि उसके पास इतने रुपए होते, जिससे उनके कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते, या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का उन्हें डर न था। जिन्दगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याल था सिर्फ परिवार के बर्बाद हो जाने का।
आज फतेहचन्द को अपनी शारीरिक कमजोरी पर जितना दु:ख हुआ, उतना और कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरु ही से तन्दुरुस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती कि वह उनका कान पकड़ता। उसकी आंखें निकला लेते। कम से कम उन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था! और न होता, तो दो-चार हाथ जमाते ही—पीछे देखा जाता, जेल जाना ही तो होता या और कुछ?
वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदेपन पर और भी झल्लाती थीं।अगर वह उचक कर उसके दो-चार थप्पड़ लगा देते, तो क्या होता—यही न कि साहब के खानसामे, बैरे सब उन पर पिल पड़ते और मारते-मारते बेदम कर देते। बाल-बच्चों के सिर पर जो कुछ पड़ती—पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो जाता कि गरीब को बेगुनाह जलील करना आसान नहीं। आखिर आज मैं मर जाऊं, तो क्या हो? तब कौन मेरे बच्चों का पालन करेगा? तब उनके सिर जो कुछ पड़ेगी, वह आज ही पड़ जाती, तो क्या हर्ज था।
इस अन्तिम विचार ने फतेहचन्द के हृदय में इतना जोश भर दिया कि वह लौट पड़े और साहब से जिल्लत का बदला लेने के लिए दो-चार कदम चले, मगर फिर खयाल आया, आखिर जो कुछ जिल्लत होनी थी, वह तो हो ही ली। कौन जाने, बंगले पर हो या क्लब चला गया हो। उसी समय उन्हें शारदा की बेकसी और बच्चों का बिना बाप के हो जाने का खयाल भी आ गया। फिर लौटे और घर चले।
4
घर में जाते ही शारदा ने पूछा—किसलिए बुलाया था, बड़ी देर हो गई?
फतेहचन्द ने चारपाई पर लेटते हुए कहा—नशे की सनक थी, और क्या? शैतान ने मुझे गालियां दी, जलील किया बस, यही रट लगाए हुए था कि देर क्यों की? निर्दयी ने चपरासी से मेरा कान पकड़ने को कहा।
शारदा ने गुस्से में आकर कहा—तुमने एक जूता उतार कर दिया नहीं सूअर को?
फतेहचन्द—चपरासी बहुत शरीफ है। उसने साफ कह दिया—हुजूर, मुझसे यह काम न होगा। मैंने भले आदमियों की इज्जत उतारने के लिए नौकरी नहीं की थी। वह उसी वक्त सलाम करके चला गया।
शारदा—यही बहादुरी हे। तुमने उस साहब को क्यों नहीं फटकारा?
फतेहचन्द—फटकारा क्यों नहीं—मैंने भी खूब सुनायी। वह छड़ी लेकर दौड़ा—मैंने भी जूता संभाला। उसने मुझे छड़ियां जमाईं—मैंने भी कई जूते लगाए!
शारदा ने खुश होकर कहा—सच? इतना-सा मुंह हो गया होगा उसका!
फतेहचन्द—चेहरे पर झाडू-सी फिरी हुई थी।
शारदा—बड़ा अच्छा किया तुमने और मारना चाहिए था। मैं होती, तो बिना जान लिए न छोड़ती।
फतेहचन्द—मार तो आया हूं, लेकिन अब खैरियत नहीं है। देखो, क्या नतीजा होता है? नौकरी तो जाएगी ही, शायद सजा भी काटनी पड़े।
शारदा—सजा क्यों काटनी पड़ेगी? क्या कोई इंसाफ करने वाला नहीं है? उसने क्यों गालियां दीं, क्यों छड़ी जमायी?
फतेहचन्द—उसने सामने मेरी कौन सुनेगा? अदालत भी उसी की तरफ हो जाएगी।
शारदा—हो जाएगी, हो जाए, मगर देख लेना अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियां दे बैठे। तुम्हे चाहिए था कि ज्यों ही उसके मुंह से गालियां निकली, लपक कर एक जूता रसीदद कर देते।
फतेहचन्द—तो फिर इस वक्त जिंदा लौट भी न सकता। जरूर मुझे गोली मार देता।
शारदा—देखी जाती।
फतेहचन्द ने मुस्करा कर कहा—फिर तुम लोग कहां जाती?
शारदा—जहां ईश्वर की मरजी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज इज्जत हे। इज्जत गवां कर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मार का आए होते तो मैं फूली नहीं समाती। मार खाकर उठते, तो शायद मैं तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती, मगर दिल से तुम्हारी इज्जत जाती रहती। अब जो कुछ सिर पर आएगी, खुशी से झेल लूंगी.... कहां जाते हो, सुनो-सुनो कहां जाते हो?
फतेहचन्द दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गई। वह फिर साहब के बंगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं, बल्कि गरूर से गर्दन उठाए हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह कमजोरी, आंखें में वह बेकसी न थी। उनकी कायापलट सी हो गई थी। वह कमजोर बदन, पीला मुखड़ा दुर्बल बदनवाला, दफ्तर के बाबू की जगह अब मर्दाना चेहरा, हिम्मत भरा हुआ, मजबूत गठा और जवान था। उन्होंने पहले एक दोस्त के घर जाकर उसका डंडा लिया और अकड़ते हुए साहब के बंगले पर जा पहुंचे।
इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज पर थे। मगर फतेहचन्द ने आज उनके मेज पर से उठ जाने का इंतजार न किया, खानसामा कमरे से बाहर निकला और वह चिक उठा कर अंदर गए। कमरा प्रकाश से जगमगा रहा था। जमीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी, जैसी फतेहचन्द की शादी में भी नहीं बिछी होगी। साहब बहादुर ने उनकी तरफ क्रोधित दृष्टि से देख कर कहा—तुम क्यों आया? बाहर जाओ, क्यों अन्दर चला आया?
फतेहचन्द ने खड़े-खड़े डंडा संभाल कर कहा—तुमने मुझसे अभी फाइल मांगा था, वही फाइल लेकर आया हूं। खाना खा लो, तो दिखाऊं। तब तक में बैठा हूं। इतमीनान से खाओ, शायद वह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट भर खा लो।
साहब सन्नाटे में आ गए। फतेहचन्द की तरफ डर और क्रोध की दृष्टि से देख कर कांप उठे। फतेहचन्द के चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गए, यह मनुष्य इस समय मरने-मारने के लिए तैयार होकर आया है। ताकत में फतेहचन्द उनसे पासंग भी नहीं था। लेकिन यह निश्चय था कि वह ईट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे से देने को तैयार है। यदि वह फतेहचन्द को बुरा-भला कहते है, तो क्या आश्चर्य है कि वह डंडा लेकर पिल पड़े। हाथापाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने में जरा भी संदेह नहीं था, लेकिन बैठे-बैठाए डंडे खाना भी तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। कुत्ते को आप डंडे से मारिए, ठुकराइए, जो चाहे कीजिए, मगर उसी समय तक, जब तक वह गुर्राता नहीं। एक बार गुर्रा कर दौड़ पड़े, तो फिर देखे आप हिम्मत कहां जाती हैं? यही हाल उस वक्त साहब बहादुर का था। जब तक यकीन था कि फतेहचन्द घुड़की, गाली, हंटर, ठोकर सब कुछ खामोशी से सह लेगा, तब तक आप शेर थे, अब वह त्योरियां बदले, ड़डा संभाले, बिल्ली की तरह घात लगाए खड़ा है। जबान से कोई कड़ा शब्द निकला और उसने डंडा चलाया। वह अधिक से अधिक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं, तो मार खाने का भी डर है। उस पर फौजदारी में मुकदमा दायर हो जाने का अंदेशा—माना कि वह अपने प्रभाव और ताकत से जेल में डलवा देंगे, परन्तु परेशानी और बदनामी से किसी तरह न बच सकते थे। एक बुद्धिमान और दूरंदेश आदमी की तरह उन्होंने यह कहा—ओहो, हम समझ गया, आप हमसे नाराज हैं। हमने क्या आपको कुछ कहा है? आप क्यों हमसे नाराज हैं?
फतेहचन्द ने तन कर कहा—तुमने अभी आधा घंटा पहले मेरे कान पकड़े थे, और मुझसे सैकड़ों ऊल-जलूल बातें कही थीं। क्या इतनी जल्दी भूल गए?
साहब—मैंने आपका कान पकड़ा, आ-हा-हा-हा-हा! क्या मजाक है? क्या मैं पागल हूं या दीवाना?
फतेहचन्द—तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूं? चपरासी गवाह है। आपके नौकर-चाकर भी देख रहे थे।
साहब—कब की बात है?
फतेहचन्द—अभी-अभी, कोई आधा घण्टा हुआ, आपने मुझे बुलवाया था और बिना कारण मेरे कान पकड़े और धक्के दिए थे।
साहब—ओ बाबू जी, उस वक्त हम नशा में था। बेहरा ने हमको बहुत दे दिया था। हमको कुछ खबर नहीं, क्या हुआ माई गाड़! हमको कुछ खबर नहीं।
फतेहचन्द—नशा में अगर तुमने गोली मार दी होती, तो क्या मैं मर न जाता? अगर तुम्हें नशा था और नशा में सब कुछ माफ है, तो मैं भी नशे में हूं। सुनो मेरा फैसला, या तो अपने कान पकड़ो कि फिर कभी किसी भले आदमी के संग ऐसा बर्ताव न करोगे, या मैं आकर तुम्हारे कान पकडूंगा। समझ गए कि नहीं! इधर उधर हिलो नहीं, तुमने जगह छोड़ी और मैंने डंडा चलाया। फिर खोपड़ी टूट जाए, तो मेरी खता नहीं। मैं जो कुछ कहता हूं, वह करते चलो, पकड़ों कान!
साहब ने बनावटी हंसी हंसकर कहा—वेल बाबू जी, आप बहुत दिल्लगी करता है। अगर हमने आपको बुरा बात कहा है, तो हम आपसे माफी मांगता है।
फतेहचन्द—(डंडा तौलकर) नहीं, कान पकड़ो!
साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपककर उठे और चाहा कि फतेहचन्द के हाथ से लकड़ी छीन लें, लेकिन फतेहचन्द गाफिल न थे। साहब मेज पर से उठने न पाए थे कि उन्होंने डंडे का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाया। साहब तो नंगे सिर थे ही, चोट सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गई। एक मिनट तक सिर को पकड़े रहने के बाद बोले—हम तुमको बरखास्त कर देगा।
फतेहचन्द—इसकी मुझे परवाह नहीं, मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़ाये नहीं जाऊंगा। कान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसा बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पड़ना ही चाहता है!
यह कहकर फतेहचन्द ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली थी। अगर कहीं यह दूसरा हाथ पड़ गया, तो शायद खोपड़ी खुल जाए। कान पर हाथ रखकर बोले—अब अब खुश हुआ?
‘फिर तो कभी किसी को गाली न दोगे?’
‘कभी नही।‘
‘अगर फिर कभी ऐसा किया, तो समझ लेना, मैं कहीं बहुत दूर नहीं हूं।‘
‘अब किसी को गाली न देगा।‘
‘अच्छी बात है, अब मैं जाता हूं, आज से मेरा इस्तीफा है। मैं कल इस्तीफा में यह लिखकर भेजूंगा कि तुमने मुझे गालियां दीं, इसलिए मैं नौकरी नहीं करना चाहता, समझ गए?
साहब—आप इस्तीफा क्यों देता है? हम तो हम तो बरखास्त नहीं करता।
फतेहचन्द—अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीं करूंगा।
यह कहते हुए फतेहचन्द कमरे से बाहर निकले और बड़े इतमीनान से घर चले। आज उन्हें सच्ची विजय की प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उन्हें ऐसी खुशी कभी नहीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीवन की पहली जीत थी।
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