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गोपालदास नीरज: सदी के मुसाफिर का आखिरी सफर...

करीब सौ साल पहले का हिन्दुस्तान। उत्तरप्रदेश में अलीगढ़ और उसके आसपास अंग्रेजो! भारत छोड़ो के नारे सुनाई दे रहे थे...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago

राजेश बादल 

वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर, राज्यसभा टीवी ।।  

करीब सौ साल पहले का हिन्दुस्तान। उत्तरप्रदेश में अलीगढ़ और उसके आसपास अंग्रेजो! भारत छोड़ो के नारे सुनाई दे रहे थे। चार जनवरी उन्नीस सौ पच्चीस को अलीगढ़ के पड़ोसी जिले इटावा के पुरावली गांव में गोपालदास सक्सेना ने पहली बार दुनिया को देखा। छह बरस के थे तो पिता हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। तब से छियानवे साल की उमर तक गीतों के राजकुमार को अफसोस रहा कि पिता की एक तस्वीर तक नहीं थी। उस दौर में फोटो उतरवाना अमीरों का शौक था। पिता घर चलाते या तस्वीर उतरवाते। क्या आप उस दर्द को समझ सकते हैं कि दिल, दिमाग में पिता की छवि देखना चाहता है मगर वो इतनी धुंधली है कि कुछ दिखाई नहीं देता।

गरीबी ने बचपन की हत्या कर दी थी। इटावा के बाद एटा में स्कूली पढ़ाई। बालक गोपालदास रोज कई किलोमीटर पैदल चलता। मिट्टी के घर में कई बार लालटेन की रौशनी भी नसीब न होती। फूफा जी  दया कर के पांच रुपए हर महीने भेजते और पूरे परिवार का उसमें पेट भर जाता। एक दो रुपए गोपालदास भी कमा लेता। बचपन के इस दर्द का अहसास हद पार कर गया तो भाव और सुर बन के जुबान ने फूट पड़ा। अच्छा लिखते और मीठा गाते मास्टर जी कहते देखो सहगल गा रहा है लेकिन उन्हीं मास्टर जी ने एक बार सिर्फ एक नंबर से फेल कर दिया। गरीबी के कारण फीस माफ थी। फेल होने पर फीस भरनी पड़ती। घर से कहा गया पढ़ाई छोड़ दो। गोपालदास पहुंचे मास्टर जी के पास बोले नंबर बढ़ा दो वरना मेरी पढ़ाई छूट जाएगी फिर तो मास्टर जी ने गोपाल की आंखें खोल दी वो नसीहत दी जो आज तक याद है। मास्टर जी झिड़की काम आई। हाई स्कूल फर्स्ट डिवीजन में पास किया। उम्र सत्रह बरस। नौकरी दिल्ली में खाद्य विभाग में टाइपिस्ट, वेतन सड़सठ रुपए महीने। चालीस रुपए मां को भेजते। बाकी में अपना खर्च। कई बार तो भूखे ही सोना पड़ता।

वैसे नीरज और गीतों का रिश्ता दस-ग्यारह बरस की उमर में ही बन गया था। इन गीतों की दिल को छू लेने वाली मीठी मीठी धुनें फटाफट तैयार कर देना उनके लिए बाएं हाथ का काम था। पर जब नवीं कक्षा में पढ़ते थे तो कविताओं और गीतों से लोगों को सम्मोहित करने लगे थे। घर की हालत अच्छी नहीं थी इसलिए पढ़ाई के बाद ही नौकरी मजबूरी बन गई। लेकिन गोरी सरकार को नीरज के गीतों में बगावत की बू आने लगी। स्वाभिमानी नीरज ने नौकरी का जुआ उतार फेंका। इसके बाद सारे देश ने नीरज के गीतों की गंगा बहते देखी। हरिवंशराय बच्चन की कविताओं ने कविता के संस्कार डाले। नीरज का पहला कवि सम्मेलन था- एटा में। ये उन्नीस सौ इकतालीस की बात है। वो स्कूल में पढ़ते थे। अपने जमाने के चोटी के साहित्यकार और कवि सोहनलाल द्विवेदी एक कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करने आए थे। उन्नीस सौ बयालीस में दिल्ली के पहाड़गंज  में उन्हें दोबारा मौका मिला। पहली ही कविता पर इरशाद इरशाद के स्वर गूंजने लगे। वो कविता नीरज ने तीन बार सुनाई और इनाम मिला-पांच रुपए। कवि सम्मेलन की सदारत कर रहे थे अपने जमाने के जाने माने शायर-जिगर मुरादाबादी। नीरज ने जिगर साहब के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया। बोले- उमरदराज हो इस लड़के की। क्या पढ़ता है जैसे नगमा गूंजता है। इसके बाद तो कवि सम्मेलनों में नीरज की धूम मच गई। उन दिनों उनका नाम था भावुक इटावी। 

इसी दौर में उनका संपर्क क्रांतिकारियों से हुआ और वो आजादी के आन्दोलन में कूद पड़े। यमुना के बीहड़ों में क्रांतिकारियों के साथ हथियार चलाना सीखा। उन्नीस सौ बयालीस के अंग्रेजो! भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान नीरज जेल में डाल दिए गए। जिला कलेक्टर ने धमकाया-माफी मांगोगे तो छोड़ दिए जाओगे। सात सौ नौजवानों में से साढ़े छह सौ ने माफी मांग ली, जिन्होंने माफी से इनकार किया, उनमें नीरज भी थे। 

ऐसे ही एक सम्मलेन में उन्हें लोकप्रिय शायर हफीज जालंधरी ने सुना। हफीज साहब अंगरेजी हुकूमत की नौकरी बजा रहे थे और सरकारी नीतियों का प्रचार करते थे। उन्हें लगा, नीरज का अंदाज लोगों तक संदेश पहुंचाने का जरिया बन जाएगा। उन्होंने नीरज को नौकरी का न्यौता भेजा। पगार एक सौ बीस रूपए तय की गई। पैसा तो अच्छा था, लेकिन वो नीरज का सोच नहीं खरीद पाए और नीरज ने नौकरी को लात मार दी। वो विद्रोह गा रहे थे। नीरज भागकर कानपुर आ गए। एक निजी कम्पनी में नौकरी मिली और साथ में पढ़ाई की छूट भी। बारहवीं पास की। इसी दरम्यान देश आजाद हो गया। नीरज को सरकारी नौकरी मिल गई। मगर वो हैरान थे सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार देखकर। आखिरकार 1956 में उन्होंने ये नौकरी भी छोड़ दी। कानपुर में बिताए दिन नीरज की जिन्दगी का शानदार दौर  है।  कानपुर की याद में उन्होंने लिखा-
कानपुर आह ....आज तेरी याद आई

कुछ और मेरी रात हुई जाती है

आंख पहले भी बहुत रोई थी तेरे लिए

अब लगता है कि बरसात हुई जाती है

कानपुर आज देखे जो तू अपने बेटे को

अपने नीरज की जगह लाश उसकी पाएगा

सस्ता इतना यहां मैने खुद को बेचा है

मुझको मुफलिस भी खरीदे तो सहम जाएगा

नीरज के गीत इन दिनों पूरे देश में लोगों पर जादू कर रहे थे पर उनकी आमदनी से किसी तरह परिवार का पेट पल रहा था। पैसे की तंगी से जूझते 1954 में उन्होंने अपना कोहिनूर गीत रचा। यह गीत उन्होंने रेडियो पर सुनाया था। यह गीत था- कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे... इस गीत ने धूम मचा दी। गली गली में यह लोगों की जुबान पर था। गीत फिल्म निर्माता चंद्रशेखर को ऐसा भाया कि उन्होंने इसे केंद्र में रखकर फिल्म नई उमर की नई फसल बना ली।फिल्म के बाकी गीत भी नीरज की कलम से ही निकले थे।

सारे के सारे हिट और दिल को छूने वाले। इसी गीत ने उनकी नौकरी भी अलीगढ़ कॉलेज में लगाईं। तभी से नीरज अलीगढ़ के और अलीगढ़ उनका हो गया। आलम यह था कि नीरज को फिल्मी दुनिया से बार बार बुलावा आने लगा। नीरज मायानगरी की चकाचौंध से दूर रहना चाहते थे, लेकिन मुंबई उनके स्वागत में पलकें बिछाए थी। मायानगरी में करोड़ों लोग कामयाबी का सपना पालते हैं और सारी उमर संघर्ष करते रहते हैं। वास्तव में फिल्मी दुनिया के लोगों से नीरज का वास्ता तो उन्नीस सौ तिरेपन में ही हो गया था।राजकपूर केपिता मुगलेआजम पृथ्वीराज कपूर अपनी  नाटक कम्पनी के साथ   कानपुर आए थे।  नीरज के नाम से तब भी लोग कवि सम्मेलनों में उमड़ते थे। पृथ्वीराज कपूर ने तीन घंटेनीरज को सुना और फिल्मों में आने की दावत दी। नीरज ने  उसे हंसी में उड़ा दिया। उन दिनों वो बुलंदियों पर थे। फिल्मों-इल्मों पर क्या ध्यान देते। मगर इन्हीं दिनों वो देवानंद से टकरा गए। दो सदाबहार हीरो एक दूसरे के मुरीद हो गए और दोस्ती हुई तो देव साहब की दुनिया से विदाई के बाद ही टूटी।

फिल्म निर्माता देवानंद कहते तो नीरज एक बार नहीं सौ बार मना कर देते लेकिन देवानंद को दोस्तों के दोस्त नीरज कैसे मना करते? न न करते भी देवानंद ने प्रेमपुजारी के गीत लिखवा लिए। एक के बाद एक सुपर हिट गीतों की नीरज ने झड़ी लगा दी। वो दौर बेहतरीन प्रेम कहानियों का था। गीत नायाब,फिल्में शानदार और नीरज की बहार। प्रेम गीतों का अद्भुत संसार। कुछ गीतों के मुखड़े देखिए-

देखती ही रहो आज दर्पण न तुम प्यार का ये मुहूर्त निकल जाएगा.../ आज की रात बड़ी शोख बड़ी नटखट है.../ लिखे जो खत तुझे,वो तेरी याद में हजारों रंग के नजारे बन गए.../ फूलों के रंग से,दिल की कलम से.../ शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब.../ आज मदहोश हुआ जाए रे.../ रेशमी उजाला है, मखमली अन्धेरा.../  रंगीला रे तेरे रंग में रंगा है मेरा मन.../ मेघा छाए आधी रात.../ सुबह न आए ,शाम न आए.../ खिलते हैं गुल यहां...

दरअसल प्रेम और श्रृंगार गीतों ने नीरज की पहचान एक ऐसे गीतकार की बनाई है,जिससे वो आज तक मुक्त नहीं हो पाए हैं। इस कारण उनके जीवन दर्शन और उनके भीतर छिपे यायावर को लोग नहीं समझ पाए। जिन्दगी की कठिन सच्चाई और नीरज के आसान शब्द। एक गीत है- बस यही अपराध में हर बार करता हूं आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं... और ए भाई जरा देख के चलो...  

दरअसल राजकपूर तो इस गीत को लेकर उलझन में थे- आखिर यह कैसा गीत है।  इसकी धुन कैसे बनाई जाए? नीरज ने मुश्किल आसान कर दी। लेकिन बदलते जमाने पर आखिर किसका जोर है? छह-सात साल नीरज मायानगरी में रहे, मगर दिल तो अलीगढ़ में ही छोड़ गए थे। वहीं अटका रहा। अपने शहर की तड़प और बढ़ गई,जब फिल्म निर्माता गीतों में धुन के मुताबिक तब्दीली पर जोर देने लगे। नीरज का मन कहता- छोड़ो क्या धरा है मुंबई में। एक दिन तो राजकपूर को खरी खरी सुना दी। उनसे कहा,भाई देखो! फिल्म इंडस्ट्री को चाहिए बिना पढ़े लिखे लोग। मैं तो पढ़ा लिखा हूं। प्रोफेसर हूं। मुझे भूखों मरने का संकट नहीं होगा। मरेंगे आपके बिना पढ़े लिखे लोग। मैं उनके इशारे पर थोड़े ही गीत लिखने आया हूं। इसी बीच उनके साथी भी एक एक कर साथ छोड़ने लगे। रौशन गए,एस डी बर्मन गए। फिर शंकर जयकिशन की जोड़ी टूट गई तो 1973 में नीरज ने मायानगरी को अलविदा कह दिया।

बोरिया-बिस्तर समेटा और अलीगढ़ लौट आए। आप कह सकते हैं कि नीरज वो गीतकार थे जिन्हें मायानगरी ने बड़े अदब से बुलाया था और मोहभंग हुआ तो उसे ठुकरा कर चले आए। उसके बाद देवानंद ने बहुत जिद की तो उनकी आखिरी फिल्म चार्जशीट के लिए एक खूबसूरत गीत रचा। देवानंद तो चले गए मगर नीरज के दिल में देवानंद आखिरी सांस तक धड़कता रहा। माया बहुत लोगों को लुभाती है,लेकिन नीरज वो है जो मायानगरी की माया से कोसों दूर रहा।

आमतौर पर नीरज को प्रेम और श्रृंगार के गीतों को गढ़ने वाला अद्भुत शिल्पी माना जाता है। लेकिन नीरज के तमाम रूप हैं। उनके गीत बदलते दौर का दस्तावेज हैं और उनके गीत इसका सुबूत। एक दौर ऐसा भी आया था जब हर शहर में महिलाएं, लड़कियां और सुंदरियां उनके पीछे पड़ जाती थीं। नीरज के लिए उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। एक बार तो एक महिला ने उन्हें इतने प्रेमपत्र लिखे कि उन पर बाद में एक संकलन प्रकाशित हो गया। इस संकलन से ऐसे ही कुछ पत्रों की बानगी आपके लिए पेश है। ये पत्र वास्तविक हैं और हिंदी की एक प्रसिद्ध लेखिका द्वारा लिखे गए हैं। इनका साहित्यिक महत्व इसलिए है क्योंकि प्रेम के अलावा इनमें जीवन की अनेक सामयिक और शाश्वत समस्याओं पर विचार किया गया है।

पत्र-1

प्रिय नीरज जी

...आपका काव्यपाठ सुनकर यकायक ही मुझे अपने स्वयं के जीवन से एक आनंद मिश्रित एकत्व का अनुभव हुआ है। इन कविताओं से मेरी खोई आत्मा फिर प्राप्त हो गई है...। मुझे सूचना मिली है कि आप यहां फिर आ रहे हैं। विश्वास करती हूं कि आपसे पहली बार भेंट करने की मेरी कामना पूरी होगी...।

आपकी नी...

पत्र-2

....आपका पत्र जो स्नेह सिक्त और मनरंजन है -उसके लिए आभारी हूं।....हां मैं वही हूं जो उस दिन जब आप कविता पाठ कर रहे थे -आपके ठीक सामने बैठी थी...

पत्र-3

प्रिय बंधु

तुम्हारी प्यारी आवाज सुनने के लिए मैं इतनी विकल थी लेकिन निरंतर प्रयत्न करने पर भी पटना रेडियो के कवि सम्मेलन में नहीं सुन पाई ...क्या तुम सचमुच पटना रेडियो पर बोले  थे?...फिर भी तुम मेरे लिए अभी भी अपरिचित और अनजान ही हो....।

पत्र-4

मेरे परम मित्र

वह कौन सी मंजिल है,जहां हम जा रहे हैं?वह कौन सा स्वप्न है जिसे हम अपनी रातों का राजकुमार और नींद का श्रृंगार बना रहे हैं...।  तुम कैसे हो?तुम्हारे विषय में लोगों से तरह तरह की बातें सुनती हूं। लेकिन तुम्हारे विषय में कोई धारणा बना लेने की जल्दबाजी मैंने नहीं की है। ..अच्छा अगला पत्र क्या तुम मुझे हिंदी में लिखोगे?

तुम्हारी ही

नी....

पत्र-5

प्यारे कवि

आज रविवार है। मैं घर पर हूं और सांझ की इस घोर उदासी में डूबी हूं...।  मैं तुमसे प्रार्थना करती हूं कि मुझसे बहुत अधिक आशा मत रखो क्योंकि मैं तुम्हारी कल्पना के विपरीत भी हो सकती हूं। ...तुम बहुत व्यग्र मालूम होते हो ...अगर हो तो फिर देर क्यों करते हो ...आ क्यों नहीं जाते? आओगे न? मैं प्रतीक्षा कर रहीं हूं।....

नी....

पत्र-6

गीतों के राजकुमार

मैं तुम्हारे विषय में कुछ नहीं जानती ....क्या तुम मुझ पर विश्वास करते हो? और क्या यह मानते हो कि मैं ईमानदार हूं  ..जब मैं तुमसे कहती हूं,काश। मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकती... इस समय सुबह के चार बजे हैं। ..सारा संसार सो रहा है ..तुम भी इस समय अपनी,'पत्थरों के देश की राजकुमारी'के सपनों मैं डूबे होगे ...नहीं मैं रोमांटिक नहीं हूं...मैं तुमसे क्षमा मांगना चाहती हूं। नीर... क्या तुम मुझे क्षमा करोगे?...यह सत्य है कि तुम सुखी नहीं हो ...इसलिए फिर पूछती हूं ...क्या किसी प्रकार भी मैं तुम्हें सुखी कर सकती हूं ...प्यारे कवि ...मुझे डर है कि हमारा मिलन अब एक असफल मिलन ही सिद्ध होगा ...नीर ..मैं हृदय से धार्मिक स्त्री हूं ...जीवन के प्रति ईमानदार हूं ...सौन्दर्य को प्यार करती हूं ...सत्य को खोज रही हूं ...पश्चाताप बुरा समझती हूं ..क्या तुम्हारी रागवृति और मेरी त्यागवृति का मिलन बिना किसी विस्फोट के सम्भव है?...बहुत बार मेरा मन करता है कि तुम्हारे पास आ जाऊ और तुम्हारे निकट बैठ कर जी भर कर रो लूं ..... 

तुम्हारी अपनी ही

नी.........

 

लेकिन 75 साल के सफर में पैंसठ साल तक नीरज ने जो काव्य साधना की,उसके बारे में लोग न के बराबर ही जानते हैं। दरअसल नीरज के गीतों में व्यवस्था के प्रति विद्रोह,इंसानियत का पाठ,जीवन दर्शन, आध्यात्मिक सोच और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का जो असर है,उसके मुकाबले प्रेम गीत तो एक फीसदी नहीं हैं। खुद नीरज भी यही मानते थे।

आजादी से पहले जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई जुबान नहीं खोल सकता था तो नीरज ने विद्रोह गीत गाकर खलबली मचाई थी। देश आजाद हुआ तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नौकरी को लात मार दी। सांस्कृतिक,राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों में गिरावट पर उनकी कलम खूब चली। देश सेवा के नाम पर राजनीति करने वालों की उन्होंने जमकर खबर ली।

आखिरी दिनों में  देह तो थकने लगी  थी। मगर दिल और दिमाग़ उतना ही सक्रिय। उनका एक दिन कैसा था?वक्त पर उठते रहे। सूरज को सलाम करते थे। वाकर के सहारे चल कर आते। बरामदे मैं पहली चाय होती। फिर पढ़ने का सिलसिला। तब तक  कुछ दोस्त दीवाने आते। दुनिया जहान की बातें। कभी कभी पुरानी यादों मैं खो जाते। तस्वीरों और अपनी ही किताबों के जरिए। अपने आप से बातें करते रहते थे। अब तक के सफर से पूरी तरह संतुष्ट।

सदी के इस मुसाफिर को अपने सफरनामें पर कोई खास अफसोस नहीं रहा। न उनको दौलत की चाह थी न शौहरत की चाह,कुछ चाह थी तो बस इंसानियत की चाह थी। धूप चढ़ते ही नीरज को चिट्ठियों के उत्तर भी देने होते थे। हर खत का जवाब देना  मुमकिन नहीं। फिर भी सिंगसिंग से उत्तर लिखवाते थे। कभी कभी खुद भी लिखने बैठ जाते। कोई दीवाना उनसे खत मैं कविता की फरमाइश कर बैठा तो। अब नीरज की कविता तो सिंग सिंग नहीं लिखेगा न?

दोपहर होने पर लंच के लिए भीतर जाते। फिर आराम। शाम की चाय उस दिन हमारे साथ पी थी। रात देर तक वो हमसे बतियाते रहे थे। कुछ मित्र अनेक दशकों से रोज शाम को आते थे। रम और रमी की महफिल जमती थी। उस दिन भी जमी थी। रात घनी होती गई। दोस्तों की महफिल बर्खास्त हो चुकी है। रात की ब्यारी में दो फुल्के और सादा दाल या फिर दलिया। बीते दिनों एक ऑपरेशन के बाद चलने में कुछ तकलीफ होती थी। वाकर का सहारा लेना पड़ता था। मैं भी उन्हें सोने देना चाहता था।

लेकिन बोले- रुको। बहुत दिनों के बाद

दिन भर इस तरह किसी के साथ रहा हूं। मैं शुभ रात्रि कहना चाहता था,पर के लिए रोक लिया। बोले,साठ बरस पहले एक मृत्युगीत लिखा था। इसे सुन सुन कर लोग रोया  करते थे। दुःख और अवसाद में डुबो देने वाला अपना ये गीत कुछ दिनों से रोज रात को याद आता है। कवि सम्मेलनों में अक्सर कवियों से गीत सुनाने की फरमाइश की जाती है लेकिन अनेक शहरों में आयोजक मुझसे प्रार्थना करते थे कि वो इतना दर्द भरा मृत्युगीत न सुनाएं। सैकड़ों लोग कई कई दिन इसे सुन कर सो नहीं पाते थे। मगर मुझे तो हर रात ये गीत याद आता है और सुला कर चला जाता है। हां ये जरूर सोचता हूं कि हो सकता है,ये रात मुझे हमेशा के लिए सुला दे। और फिर वो पूछते हैं,इतना दर्द भरा गीत इस घनी रात में सुनना चाहोगे या फिर नींद प्यारी है। मैं उत्तर देता हूं,'मैं अपनी आखिरी सांस तक आपको गाते हुए सुनना चाहता हूं। आप बेहिचक सुनाएं’ ।फिर नीरज गुनगुनाने लगे-

अब शीघ्र करो तैयारी मेरे जाने की/

रथ जाने को तैयार खड़ा मेरा/

है मंजिल मेरी दूर बहुत, पथ दुर्गम है/

हर एक दिशा पर डाला है तम ने डेरा/

कल तक तो मैंने गीत मिलन के गाए थे/

पर आज विदा का अंतिम गीत सुनाऊंगा/

कल तक आंसू से मोल दिया जग जीवन का/  

अब आज लहू से बाकी कर्ज चुकाऊंगा/

बेकार बहाना,टालमटोल व्यर्थ सारी/

आ गया समय जाने का-जाना ही होगा/

तुम चाहे कितना चीखो चिल्लाओ,रोओ/

पर मुझको डेरा आज उठाना ही होगा/

देखो लिपटी है राख  चिता की पैरों पर/

अंगार बना जलता है रोम रोम मेरा/

है चिता सदृश्य धू धू करती ये देह सबल/

है कफन बंधा सर पर,सुधि को तम ने घेरा/

 जब लाश चिता पर मेरी रखी जाएगी/

अंजानी आंखें भी दो अश्रु गिराएंगीं/

पर दो दिन के ही बाद यहां इस दुनिया में/

रे याद किसी को मेरी कभी न आएगी/

लो चला ,संभालो तुम सब अपना साज बाज

दुनिया वालों से प्यार हमारा कह देना/

भूले से कभी अगर मेरी सुधि आ जाए/

तो पड़ा धूल में कोई फूल उठा लेना/

गीत बहुत लंबा है। मेरी याद में  सिर्फ यही पंक्तियां बाकी रह गईं हैं।

आवाज मद्धम पड़ती जा रही है। गीतों का सम्राट सो चुका है। मैं लाश की तरह देह को अपने पर लादे चल पड़ता हूं। बड़ा बहादुर बनता था। चला था -मृत्युगीत सुनने। उस दिन से रोज रात बिस्तर पर ये गीत मुझे झिंझोड़ देता है, सोता हूं,जागता हूं,रोता हूं,सुबह हो जाती है। रात चली जाती है। मृत्युगीत मेरी देह से,मेरी आत्मा से चिपक गया है। मृत्युगीत अमर है। जिन्दगी का सच है। नीरज की देह आज नहीं है। मगर नीरज कभी नहीं मरेगा।


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