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वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार का सवाल- क्या पत्रकारों की विश्वसनीयता कठघरे में है?

‘अमेरिका में प्रेस के संवैधानिक अधिकार भारत से कहीं ज्यादा और बेहतर हैं। अमेरिकी मीडिया को लेकर कोई आदर्श या स्वर्ण युग टाइप धारणा नहीं रखनी चाहिए। उनकी भी कमियां रही हैं। भारत में भी आम लोग खूब पूछते हैं कि मीडिया सरकार से डर गया है, क्या सरकार मीडिया को डरा रही है, क्या पत्रकार बिक गया है, फलां चमचा है, पत्रकारों क

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago

‘अमेरिका में प्रेस के संवैधानिक अधिकार भारत से कहीं ज्यादा और बेहतर हैं। अमेरिकी मीडिया को लेकर कोई आदर्श या स्वर्ण युग टाइप धारणा नहीं रखनी चाहिए। उनकी भी कमियां रही हैं। भारत में भी आम लोग खूब पूछते हैं कि मीडिया सरकार से डर गया है, क्या सरकार मीडिया को डरा रही है, क्या पत्रकार बिक गया है, फलां चमचा है, पत्रकारों को इस बात के लिए भी निशाना बनाया जाता है कि वो सरकार से सवाल क्यों करता है।’ हिंदी न्यूजपोर्टल ‘एनडीटीवी इंडिया’ में छपे अपने ब्लॉग के जरिए ये कहना है वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार का। उनका ये ब्लॉग आप यहां पढ़ सकते हैं-

क्या पत्रकारों की विश्वसनीयता कठघरे में?

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर पत्रकार को चमचा होने की ज़रूरत नहीं है। उसे संदेहवादी होना चाहिए। मतलब सरकार के हर दावे को संदेह की निगाह से देखे। यह वाक्य अमेरिका के अस्ताचल राष्ट्रपति ओबामा का है। पद छोड़ने से 48 घंटे पहले ओबामा ने व्हाइट हाउस के पत्रकारों से बात करते हुए अंग्रेज़ी में इस वाक्य को यूं कहा, "You are not supposed to be sycophants, you are supposed to be skeptics।"

हिन्दी में संदेहवादी ही उचित शब्द है मगर मुझे प्रश्नवादी बेहतर लगता है। पत्रकार को प्रश्नवादी होना चाहिए। ओबामा के इस कथन के ढाई महीना पहले सुदूर भारत में भी ठीक यही बात अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा ने भारत के प्रधानमंत्री के सामने कही थी। उनके सामने कहे जाने से इस बात का वज़न थोड़ा अधिक हो जाता है क्योंकि उन्होंने सत्ता के शिखर पुरुष के सामने सवाल पूछने के अपने अधिकार को दोहराया था।

ओबामा कह रहे हैं कि अमेरिका को पत्रकारों की ज़रूरत है। लोकतंत्र को पत्रकारों की ज़रूरत है। राष्ट्रपति पद की शपथ लेने जा रहे ट्रंप मीडिया से इस तरह पेश आ रहे हैं जैसे उसका काम उनके कथनों को टाइप करना है, प्रश्न करना नहीं है। अमेरिका में प्रेस के संवैधानिक अधिकार भारत से कहीं ज्यादा और बेहतर हैं। अमेरिकी मीडिया को लेकर कोई आदर्श या स्वर्ण युग टाइप धारणा नहीं रखनी चाहिए। उनकी भी कमियां रही हैं। भारत में भी आम लोग खूब पूछते हैं कि मीडिया सरकार से डर गया है, क्या सरकार मीडिया को डरा रही है, क्या पत्रकार बिक गया है, फलां चमचा है, पत्रकारों को इस बात के लिए भी निशाना बनाया जाता है कि वो सरकार से सवाल क्यों करता है।

वैसे आठ साल के कार्यकाल में ओबामा की 165वीं प्रेस कांफ्रेंस थी। इसे आप उनके आठ साल के कार्यकाल से भागा देंगे तो ओबामा ने हर साल 20 प्रेस कांफ्रेंस की है। ढाई साल हो गए, भारत के प्रधानमंत्री ने एक भी औपचारिक प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है। अलबत्ता उन्होंने चंद चैनलों और अख़बारों को विस्तार से इंटरव्यू ज़रूर दिया है। ढाई साल में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी कोई ओपन प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है। वैसे जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने आठ साल में 210 प्रेस कांफ्रेंस की थी और क्लिंटन ने आठ साल में 193 प्रेस कांफ्रेंस की थी। लेकिन आप दर्शक या पाठक इसे दिल्ली की सरकार के संदर्भ में न देखें। अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री के संदर्भ में भी देखिये कि कौन है जो खुद को ओपन प्रेस कांफ्रेंस में तमाम प्रश्नों के लिए पेश करता है।

सारी बहस प्रधानमंत्री को केंद्र में रखकर नहीं होनी चाहिए इससे अखिलेश यादव से लेकर नीतीश कुमार, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी तक सब सस्ते में छूट जाते हैं। ओबामा ने कहा है कि पत्रकारों को कठोर प्रश्न करने चाहिए। हम बात करेंगे कि उनके कार्यकाल में पत्रकारिता का क्या स्तर था। कैसी आज़ादी थी। प्रेस की स्वतंत्रता की सूची में दुनिया के 180 देशों में अमेरिका का स्थान 41वां हैं। पहले दूसरे तीसरे नंबर पर फिनलैंड, नीदरलैंड और न्यूज़ीलैंड हैं। सीरीया, अफगानिस्तान, इराक को लेकर अमेरिकी मीडिया के प्रोपेगैंडा को आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। ये सब तब हुआ जब ट्रंप सीन में भी नहीं थे। अब ट्रंप काल शुरू हो रहा है। ट्रंप ने फेक न्यूज़ का मसला उठाया है। उस पर आलोचना हो सकती है मगर फेक न्यूज़ एक हकीकत है, इससे कौन इनकार कर सकता है। जो भी है, ट्रंप प्रेस को लेकर अपनी नापसंद खुलकर ज़ाहिर करते हैं जैसे भारत में एक मंत्री ने प्रेस को प्रेस्टिट्यूट कहा। सोशल मीडिया पर गाली देने वालों की टोली भी खड़ी की गई है जो प्रेस की आज़ादी कम करने का समर्थन करते हैं, राष्ट्रवाद के नाम पर प्रश्नवाद को बेमानी मानते हैं।

ट्रंपागमन को लेकर मीडिया अपनी आज़ादी और भूमिका पर लगातार विचार कर रहा है। हाल ही में अमेरिकी पत्रकारों ने ट्रंप को ही पत्र लिख दिया। हम पूरा तो नहीं मगर व्यापक हिस्से का कहीं शाब्दिक तो कहीं भावात्मक अनुवाद पेश करेंगे। लंबा पत्र है, ग़ौर से सुनियेगा ये पत्र बहुत लंबा है। इस पत्र को तमाम अखबार पहले पन्ने पर छाप दें तो पत्रकारों के बदलने से पहले पाठकों में बदलाव आ जाएगा, फिर सबकुछ अपने आप बदल जाएगा। अगर आप पाठकों में से कोई पत्रकारिता का दीवाना है तो अपने स्तर पर इसका अलग अलग भाषाओं में अनुवाद कर बस स्टैंड से लेकर गांव के चौपाल तक पर चिपका आइये। अमेरिकन प्रेस कोर अमेरिका के पत्रकारों का एक बड़ा संगठन है जिसका सेंटर न्यूयॉर्क के कोलंबिया युनिवर्सिटी के अंदर है। हर तरह के न्यूज़ संगठन और विचारधारा के पत्रकार हैं। अब हिन्दी में पत्रोच्चारण आरंभ करता हूं।

आदरणीय निवार्चित राष्ट्रपति जी,

आपके कार्यकाल के शुरू होने के अंतिम दिनों में हमने अभी ही साफ कर देना सही समझा कि हम आपके प्रशासन और अमेरिकी प्रेस के रिश्तों को कैसे देखते हैं। हम मानते हैं कि दोनों के रिश्तों में तनाव है। रिपोर्ट बताती है कि आपके प्रेस सचिव व्हाईट हाउस से मीडिया के दफ्तरों को बंद करने की सोच रहे हैं। आपने ख़ुद को कवर करने से कई न्यूज़ संगठनों को बैन किया है। आपने ट्विटर पर नाम लेकर पत्रकारों पर ताने कसे हैं, धमकाया है। अपने समर्थकों को भी ऐसा करने के लिए कहा है। आपने एक रिपोर्टर का यह कहकर मज़ाक उड़ाया है कि उसकी बातें इसलिए अच्छी नहीं लगी कि वह विकलांग है।

हमारा संविधान प्रेस की आज़ादी का संरक्षक है। उसमें कहीं नहीं लिखा है कि राष्ट्रपति कब प्रेस कांफ्रेंस करें और प्रेस का सम्मान करें। प्रेस से संबंध रखने के नियम आपके होंगे। हमारा भी यही अधिकार है क्योंकि टीवी और अखबार में वो जगह हमारी है जहां आप प्रभावित करने का प्रयास करेंगे। वहां आप नहीं, हम तय करते हैं कि पाठक, श्रोता या दर्शक के लिए क्या अच्छा रहेगा। अपने प्रशासन तक रिपोर्टर की पहुंच समाप्त कर ग़लती करेंगे। हम सूचना हासिल करने के तरह तरह के रास्ते खोजने में माहिर हैं। आपने अपने अभियान के दौरान जिन न्यूज़ संगठनों को बैन किया था उनकी कई रिपोर्ट बेहतरीन रही है।

हम इस चुनौती को स्वीकार करते हैं। पत्रकारिता के नियम हमारे हैं, आपके नहीं हैं। हम चाहें तो आपके अधिकारियों से ऑफ द रिकॉर्ड बात करें या न करें। हम चाहें तो ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग में आयें न आयें। अगर आप यह सोचते हैं कि रिपोर्टर को चुप करा देने या भगा देने से स्टोरी नहीं मिलेगी तो ग़लत हैं। हम आपका पक्ष लेने का प्रयास करेंगे। लेकिन हम सच्चाई को तोड़ने मरोड़ने वालों को जगह नहीं देंगे। वे जब भी ऐसा करेंगे हम उन्हें भगा देंगे। यह हमारा अधिकार है। हम आपके झूठ को नहीं दोहरायेंगे। आपकी बात छापेंगे लेकिन सच्चाई का पता करेंगे।

आप और आपका स्टाफ व्हाइट हाउस में बैठा रहे, लेकिन अमेरिकी सरकार काफी फैली हुई है। हम सरकार के चारों तरफ अपने रिपोर्टर तैनात कर देंगे। आपकी एजेंसियों में घुसा देंगे और नौकरशाहों से ख़बरें निकाल लायेंगे। हो सकता है कि आप अपने प्रशासनिक इमारत से आने वाली खबरों को रोक लें लेकिन हम आपकी नीतियों की समीक्षा करके दिखा देंगे। हम अपने लिए पहले से कहीं ज्यादा ऊंचे मानक कायम करेंगे। हम आपको इसका श्रेय देते हैं कि आपने मीडिया की गिरती साख को उभारा है। हमारे लिए भी यह जागने का समय है। हमें भी भरोसा हासिल करना होगा। हम इसे सही, साहसिक रिपोर्टिंग से हासिल कर लेंगे। अपनी गलतियों को मानेंगे और पेशेवर नैतिकता का पालन करेंगे।

ज़्यादा से ज़्यादा आप आठ साल ही राष्ट्रपति के पद पर रह सकते हैं लेकिन हम तो तब से हैं जब से अमेरिकी गणतंत्र की स्थापना हुई है। इस महान लोकतंत्र में हमारी भूमिका हर दौर में सराही गई है। तलाशी गई है। आपने हमें मजबूर किया है कि हम अपने बारे में फिर से यह बुनियादी सवाल करें कि हम कौन हैं। हम किसलिए यहां हैं। हम आपके आभारी हैं। अपने कार्यकाल के आरंभ का लुत्फ उठाइये।

The Press Corps

अमेरिका के पत्रकारों ने दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्रपति को यह पत्र लिखा है। पत्रकारिता का इकबाल बुलंद रहे इसलिए हमने इस पत्र को आप तक पहुंचाया अब आगे आप गांव गांव पहुंचा दीजिए क्योंकि ये पत्र भारत के पत्रकार और पाठकों के लिए भी लिखा गया है। चर्चा आरंभ करने से पहले हम बीबीसी की एक पहल को सामने लाते हैं। ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर मची हाय तौबा के इस दौर में बीबीसी के डायरेक्टर जनरल टोनी हॉल ने स्लो न्यूज़ का कांसेप्ट दिया है। स्लो न्यूज़ का मतलब यह नहीं कि आज की ख़बर परसो मिलेगी। आज ही मिलेगी मगर ठीक से जांच परख के बाद।

क्योंकि आप जानते ही हैं कि सोशल मीडिया पर सही खबरों की जगह फेक न्यूज़ का संसार बढ़ता जा रहा है। बीबीसी के डायरेक्टर जनरल ने कहा है कि हम सारा इंटरनेट तो संपादित नहीं कर सकते मगर किनारे भी नहीं बैठ सकते। इसके लिए बीबीसी के भीतर इंटेलिजेंस यूनिट बनाई जा रही है जो तमाम फेक न्यूज़ की तथ्यपरक जांच कर उसका भांडाफोड़ करेगा। आप देखेंगे कि ज्यादातर फेक न्यूज़ राजनीतिक संगठनों और उनके समर्थकों द्वारा ही फैलाये जा रहे हैं। मीडिया भी फेक न्यूज़ बनाने में कम नहीं है। भारत में भी न्यूज़ लौंड्री, स्क्रोल डॉट इन, वायर डाट इन, टज्ञ्थ ऑफ गुजरात जैसी कई वेबसाइट और गाहे बगाहे चैनलों पर भी इस तरह की कोशिश हो रही है मगर फिर भी फेक न्यूज़ का जाल फैलता ही जा रहा है। बीबीसी ने इस चुनौती को अभियान के तौर पर स्वीकार किया है। फेसबुक ने भी फेक न्यूज़ की जांच के लिए टीम बनाने का एलान किया है। बीबीसी की यह बात दिलचस्प है कि हमें स्लो न्यूज़ की ज़रूरत है। जिसमें गहराई हो, आंकड़े हों, खोज हो, विश्लेषण हो और विशेषज्ञता हो।

आप चैनलों पर स्पीड न्यूज़ देखते होंगे, दिखने से पहले ही खबर निकल जाती है, सुनाई देने से पहले ही गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ कर जा चुकी होती है। स्पीड न्यूज़ के कार्यक्रमों को काफी रेटिंग मिलती है जिनमें वो सब कुछ नहीं होता जिसकी बात बीबीसी के डायरेक्टर जनरल कर रहे हैं। कहते हैं अमेरिका में मीडिया को लेकर जो हो रहा है भारत में भी हो चुका है।

(साभार: khabar.ndtv.com)

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