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न्यूज चैनलों के संपादकों से सुधीर चौधरी का सवाल, अगले हफ्ते किसकी मौत का करेंगे इंतजार...

इस बार श्रीदेवी को लेकर इतनी आलोचना हो गई थी कि एक बारगी सबको लग रहा था...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago

इस बार श्रीदेवी को लेकर इतनी आलोचना हो गई थी कि एक बारगी सबको लग रहा था कि कहीं सोशल मीडिया की आलोचना टीआरपी ना खा जाए। लेकिन बीते गुरुवार को सुबह जैसे ही टीआरपी आई, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दिग्गज हैरान रह गए। इतना बड़ा उलटफेर पिछले कई सालों में पहली बार देखा गया है। ऐसा लगा जैसे कोई सुनामी आई है और इसकी मुख्य वजह बनी फिल्म अभिनेत्री श्रीदेवी की मौत की कवरेज। इसी मुद्दे को जी न्यूज के एडिटर सुधीर चौधरी ने अपने लोकप्रिय प्रोग्राम ‘डीएनए’ में उठाया और बताया कि कैसे श्रीदेवी की मृत्यु पर देश के कुछ न्यूज़ चैनल्स, मीडिया के गिद्ध बन गये थे और श्रीदेवी की मृत्यु को संवेदनशीलता से दिखाने के बजाए, टीआरपी वाला गिद्ध-भोज कर रहे थे। इस प्रोग्राम की ट्रांसक्राइब्ड स्क्रिप्ट आप यहां पढ़ सकते हैं-

एक सेलिब्रिटी की मौत पर TRP की दौड़ में लगे चैनलों ने गिराया पत्रकारिता का स्तर

आज सबसे पहले हम मृत्यु का उत्सव मनाने वाली संपादकीय नीति का DNA टेस्ट करेंगे। मृत्यु क्या है? अगर आज के दौर में ये सवाल पत्रकारों और संपादकों से पूछा जाए तो उनमें से ज़्यादातर ये कहेंगे कि मृत्यु टीआरपी है। और अगर मृत्यु किसी सेलिब्रिटी की हो तो फिर टीआरपी की मात्रा भी कई गुना बढ़ जाती है। आज ये बात साबित हो गई है, क्योंकि पिछले हफ्ते न्यूज़ चैनलों की जो टीआरपी आई है। और इस टीआरपी ने ये बता दिया है कि अगर मीडिया में नैतिकता की कमी हो तो फिर पत्रकारिता के आदर्श किस तरह बाथटब में डूब जाते हैं। अब ये साबित हो गया है कि न्यूज़ चैनल जितना सस्ता कंटेंट दिखाएंगे, उनकी टीआरपी उतनी ही ज़्यादा होगी।

किसी जीव की मृत्यु होने पर उसका परिवार और संवेदनशील लोग तो शोक मनाते हैं लेकिन गिद्धों के लिए ये मौत एक तरह की दावत होती है। श्रीदेवी की मृत्यु पर भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। देश के कुछ न्यूज़ चैनल्स, मीडिया के गिद्ध बन गये थे और श्रीदेवी की मृत्यु को संवेदनशीलता से दिखाने के बजाए, टीआरपी वाला गिद्ध-भोज कर रहे थे। आप ये भी कह सकते हैं कि पिछला हफ्ता मीडिया के गिद्धों के लिए स्वादिष्ट भोजन लेकर आया था, क्योंकि पिछले हफ्ते देश के कुछ न्यूज़ चैनलों पर श्रीदेवी की शोकसभा नहीं, बल्कि टीआरपी वाली भोज-सभा चल रही थी। इन न्यूज़ चैनलों ने श्रीदेवी की मौत पर जो कवरेज की उसे पत्रकारिता नहीं, बल्कि सस्ता मनोरंजन कहा जाना चाहिए। श्रीदेवी की मौत से जुड़ी, तरह-तरह की मनोहर कहानियां जनता को दिखाई गईं। आप ये भी कह सकते हैं कि जिस बाथटब में डूबकर श्रीदेवी की मौत हुई थी, उसी बाथटब में कुछ चैनलों के पत्रकारिता के आदर्श भी डूब गए हैं। 

ऐसे चैनलों से आज हम एक सवाल पूछना चाहते हैं। और वो सवाल ये है कि इस हफ़्ते टीआरपी वाला 'गिद्ध-भोज' तो हो गया, अब अगले हफ्ते क्या होगा? अब इन तमाम न्यूज़ चैनलों के संपादक अगले हफ्ते क्या करेंगे? क्या ये न्यूज़ चैनल अब किसी और की मृत्यु का इंतज़ार करेंगे?

सबसे दुख की बात तो ये है कि श्रीदेवी की मौत पर गिद्ध-भोज करने वाले चैनल, अब अपनी टीआरपी नंबर-1 और नंबर-2 होने का दावा कर रहे हैं। वो दर्शकों के सामने अपनी पत्रकारिता के ऐसे कसीदे पढ़ रहे हैं, जैसे उन्होंने कोई बहुत महान काम कर दिया है। लेकिन वो ये नहीं बता रहे हैं कि उन्होंने किस तरह अपने न्यूज शोज के सस्ते और सनसनी फैलाने वाले शीर्षक दिए। श्रीदेवी की सामान्य मौत को जानबूझकर रहस्यमय बनाया गया। दर्शकों के सामने श्रीदेवी की मौत से जुड़े हुए सभी तथ्य नहीं रखे। उन तथ्यों को जानबूझ कर छुपा लिया गया, जिनसे श्रीदेवी की मौत, एक सामान्य मौत साबित होती थी। श्रीदेवी की मौत के पीछे किरदारों को तलाशा गया। जब दुबई में श्रीदेवी की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में ये बात सामने आई कि उनके शरीर में शराब के अंश पाए गए, तो इन न्यूज़ चैनलों ने सारी हदें तोड़ दीं। 

लंबे चौड़े गेस्ट पैनल्स के साथ न्यूज़ चैनलों पर इस बात की चर्चा शुरू हो गई कि श्रीदेवी शराब पीती थीं या नहीं? कुछ चैनलों के रिपोर्टर तो बाथटब में लेटकर रिपोर्टिंग करने लगे और ऐसा सस्ता मनोरंजन करते हुए एक बार भी उन्हें शर्म नहीं आई। यानी न्यूज़ चैनल श्रीदेवी की मौत का तमाशा बना रहे थे और उनकी मौत का इस्तेमाल कर रहे थे।

सवाल ये है कि अगर कोई चैनल आपसे ये कहे कि श्रीदेवी की मौत पर उसे सबसे ज़्यादा देखा गया और उसकी टीआरपी सबसे ज़्यादा थी तो आप उसके बारे में क्या सोचेंगे? इन न्यूज़ चैनलों की ऐसी बेशर्मी अगर श्रीदेवी के परिवार वाले देख रहे होंगे, तो वो क्या सोच रहे होंगे। भगवान ना करे कि ऐसा हो, लेकिन अगर श्रीदेवी की जगह आपके किसी क़रीबी की मृत्यु होती और कोई न्यूज़ चैनल ये दावा करता कि उस मौत पर सबसे ज़्यादा टीआरपी उसने लूटी थी, तो आपके मन में कैसे विचार आएंगे? क्या आप इसे पत्रकारिता कहेंगे?

हम इन चैनलों के नाम आपको नहीं बता रहे हैं, क्योंकि ये चैनल खुद ही शोर मचाकर आपको ये बता देंगे कि श्रीदेवी की मौत का तमाशा बनाकर उन्होंने कितनी भारी मात्रा में टीआरपी लूटी। आपको आंकड़ों के ज़रिए ये पूरी स्थिति समझाने के लिए हमने इन चैनलों का नाम चैनल A और चैनल B रखा है। इन दोनों चैनलों ने कैसे श्रीदेवी की मौत की मनोहर कहानियां दिखाकर टीआरपी कमाई है, अब ये देखिए। 17 फरवरी से 23 फरवरी 2018 के बीच चैनल A की टीआरपी 16.1% थी, जो पिछले हफ्ते यानी 24 फरवरी से 2 मार्च के बीच बढ़कर 20.7% हो गई है। 

इसी तरह से 17 फरवरी से 23 फरवरी के बीच चैनल B की टीआरपी सिर्फ 10% थी, लेकिन पिछले हफ्ते श्रीदेवी की मौत की मसालेदार कवरेज करने की वजह से इस चैनल की टीआरपी बढ़कर 20.4% हो गई है। यानी दोगुने से भी ज्यादा का फायदा हुआ है। श्रीदेवी की मौत वाले हफ्ते में हिंदी न्यूज़ चैनलों की व्युअरशिप 99% तक बढ़ गई। यानी लगभग दोगुनी हो गई। 

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि श्रीदेवी एक महान अभिनेत्री थीं और उनकी ऐसी असमय मौत से हर देशवासी को बहुत बड़ा झटका लगा है। शायद इसीलिए लोग उनकी मौत से जुड़ी हर ख़बर को देखना चाहते थे। लेकिन इन न्यूज़ चैनलों ने देश के लोगों की इस कमज़ोर नब्ज़ को पकड़ा और श्रीदेवी के नाम पर उन्हें सस्ता मनोरंजन थमा दिया। ये एक तरह का नैतिक भ्रष्टाचार है।

DNA में हमने भी श्रीदेवी की दुखद मौत का विश्लेषण किया था। लेकिन आपको याद होगा कि हमारी कवरेज में आपको कहीं भी सस्ती और स्तर से गिरी हुई पत्रकारिता नहीं देखने को मिली होगी। हमने श्रीदेवी की शख़्सियत की बात की थी। हमने आपको ये बताया था कि कैसे श्रीदेवी पूरे हिन्दुस्तान की नायिका थीं। हमारा फोकस इस बात पर था कि एक सुपरस्टार और मौत के बीच क्या रिश्ता होता है। 

DNA एक पारिवारिक शो है, और हमें पूरी उम्मीद है कि आप अपने परिवार के साथ बैठकर हमारा ये शो देखते हैं। इस शो की ख़बरों और भाषा के चयन के दौरान हम इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि हमारी ख़बरें और भाषा आपको असहज न कर दे। लेकिन मौत में भी टीआरपी खोजने वाले चैनलों को इस बात की फिक्र नहीं होती है। इन चैनलों के लिए ख़बरों और मनोहर कहानियों के बीच कोई अंतर नहीं है। ख़बरों को कच्चे माल की तरह सस्ती सोच वाली फैक्ट्री में डाला जाता है। और फिर उन्हें सनसनीखेज़ या अश्लील बनाकर आपके सामने पेश कर दिया जाता है।

भारत में टीवी देखना एक पारिवारिक गतिविधि माना जाता है। हमारे देश में ज़्यादातर घरों में एक ही टीवी होता है और पूरा परिवार एक साथ बैठकर टीवी देखता है। और ऐसे समय में अचानक सस्ता और ओछा कंटेंट देखकर लोग शर्मिंदा हो जाते हैं और न्यूज़ चैनल बदलकर कोई एंटरटेनमेंट चैनल लगा लेते हैं। ऐसा ही श्रीदेवी की मौत की कवरेज के साथ भी हुआ है। 

भारतीय न्यूज़ चैनलों का ये स्वरूप समय समय पर किसी चक्रवाती तूफान की तरह सामने आता रहता है। आपको याद होगा कि गुरमीत राम रहीम और हनीप्रीत को लेकर मीडिया ने किस तरह सस्ता और स्तर से गिरा हुआ कंटेंट दिखाया था। तब भी हमने मीडिया के इस आचरण पर सवाल उठाये थे।

जिस तरह देश के आर्थिक हालात, आतंकवाद या महिलाओं की सुरक्षा पर डिबेट होते हैं, न्यूज़ चैनलों पर दिन-रात वैसी ही चर्चाएं और डिबेट श्रीदेवी पर हो रही थीं, कुछ न्यूज़ चैनल तो इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि श्रीदेवी की हत्या हुई है या सामान्य मौत?  

इस पर तरह-तरह की रिपोर्टिंग हो रही थी। श्रीदेवी की मौत पर जो न्यूज शो बनाए गये उनके शीर्षक ऐसे थे, जैसे किसी सस्ते उपन्यास का शीर्षक हो। ऐसा लगता है जैसे सभी न्यूज़ चैनलों में इस बात ही होड़ मची है, कि कौन, कितने सस्ते शीर्षक दे सकता है। ऐसे न्यूज़ चैनलों से आपको सावधान रहना चाहिए। 

इन चैनलों ने गैर ज़िम्मेदाराना रिपोर्टिंग तो की है, लेकिन दर्शकों ने भी इन चैनलों को देखकर अपनी गैर ज़िम्मेदारी दिखाई। इसलिए आपको भी ख़बरों के चुनाव में अपनी ज़िम्मेदारी दिखानी होगी। आपको तय करना होगा कि आपको सनसनीखेज़ खबरें देखनी हैं, या फिर देश के हितों से जुड़ी हुई ख़बरें? जब तक आप ये तय नहीं करेंगे, तब तक ये न्यूज़ चैनल हर ख़बर का ऐसे ही मज़ाक बनाते रहेंगे और सनसनी फैलाते रहेंगे। पिछले हफ़्ते की टीआरपी, न्यूज़ चैनल्स और देश की जनता के लिए एक आईना है। क्योंकि जनता भी घटिया कंटेंट को बढ़ावा दे रही है। जब न्यूज़ चैनल इस तरह के हथकंडों से टीआरपी हासिल कर लेते हैं, तो उन्हें सस्ते कंटेंट का नशा हो जाता है। वो बार-बार ऐसा कंटेंट दिखाकर टीआरपी लूटते हैं और जब उन पर सवाल उठाए जाते हैं तो ये न्यूज़ चैनल, ये तर्क देते हैं कि जनता यही सब देखना चाहती है। इसलिए आप भी अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे मत हटिये और न्यूज़ चैनल्स को ऐसा मौका मत दीजिए।

फिल्म दिखाने वाले चैनल्स और एंटरटेनमेंट चैनल्स में कंटेंट पर किसी ना किसी तरह का नियंत्रण रहता है।। लेकिन न्यूज़ चैनल्स को फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन (Freedom of Expression) के नाम पर आज़ादी मिली हुई है और वो उस आज़ादी का जमकर दुरुपयोग कर रहे हैं। न्यूज़ चैनल्स पर कई बार किसी सामान्य विषय को भी इतना सस्ता बना दिया जाता है कि उसे परिवार के साथ देखना संभव नहीं होता। ज़्यादातर लोग पूरे परिवार के साथ टीवी देखते हैं और न्यूज़ चैनलों पर सस्ते कंटेंट से शर्मिंदा होकर चैनल बदल देते हैं। 

हमारे देश में करीब 78 करोड़ लोग TV देखते हैं। देश के 18 करोड़ 30 लाख घरों में TV सेट्स हैं। भारत के 64% परिवार TV देखते हैं और भारत में करीब 22 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो न्यूज़ चैनल देखते हैं। हमारे देश में TV देखने वाले लोग हर रोज़ औसतन 2 घंटे 11 मिनट तक TV देखते हैं। यानी टेलिविजन और न्यूज़ लोगों के जीवन का अहम हिस्सा है। 

पहले पूरे देश में सिर्फ एक ही टीवी चैनल हुआ करता था- और वो था दूरदर्शन। तब दूरदर्शन में भी बहुत कम न्यूज़ बुलेटिन आते थे। इसके बाद देश को नये नज़रिए की ज़रूरत महसूस हुई। लोगों को लगा कि ख़बरों को सरकारी न्यूज प्लेटफॉर्म से आज़ाद होना चाहिए।। इसलिए पहले प्राइवेट चैनल्स आए। फिर उन पर न्यूज़ बुलेटिन दिखाए जाने लगे और बाद में प्राइवेट न्यूज़ चैनल्स की शुरुआत हुई।

Zee ने देश के पहले प्राइवेट न्यूज़ चैनल Zee News की शुरुआत की थी। Zee News की शुरुआत वर्ष 1999 में हुई थी, लेकिन उससे पहले ही Zee ने अपने दूसरे चैनल Zee TV पर देश के पहले प्राइवेट न्यूज़ बुलेटिन की शुरुआत कर दी थी। 13 मार्च 1995 को Zee TV पर प्राइवेट न्यूज इंडस्ट्री का पहला बुलेटिन पढ़ा गया था। 

ये एक क्रांतिकारी बदलाव था और इसके बाद वक़्त के साथ भारत में न्यूज़ चैनलों की बाढ़ आ गई। पिछले साल यानी 2017 तक पूरे देश में 388 न्यूज़ चैनल थे। 

शुरुआत में न्यूज़ चैनलों को बदलाव और सच्चाई की मशाल के रूप में देखा जाता था। लेकिन इसके बाद टेलीविज़न की दुनिया का व्यवसायीकरण हो गया। धीरे-धीरे न्यूज़ चैनलों में कम्पटीशन बढ़ता गया और न्यूज़ चैनलों की दुनिया में टीआरपी की एंट्री हो गई। टीआरपी को आप न्यूज़ की करेंसी भी कह सकते हैं। जिस चैनल की जितनी ज़्यादा टीआरपी होती है, उसे उतने ही ज़्यादा विज्ञापन मिलते हैं और वो उतना ही ज़्यादा पैसा कमाता है। अब इसी टीआरपी के लिए न्यूज़ चैनल, सारी हदें पार कर रहे हैं। उन्हें ये समझ में नहीं आ रहा कि व्यावसायिकता, अश्लीलता और मनोहर कहानियों को अलग करने वाली लकीर बहुत पतली होती है और उसे पार करने वाले न्यूज़ चैनल कभी भी लोगों के मन में भरोसा पैदा नहीं कर पाते। 

 

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