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'राजेंद्र माथुर जी किसी अखबार की भाषा को नहीं, बल्कि उसके स्तर को महत्व देना पसंद करते थे'

राजेंद्र माथुर की केवल अंग्रेजी ही अच्छी नहीं थी, उनके पास नई भाषा को गढ़ने वाले मुहावरे थे। वे बातों को रूपक शैली में लिखते थे और वह शैली लोगों को बहुत पसंद आती थी...

Last Modified:
Saturday, 09 April, 2022
Rajendra57


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी, वरिष्ठ पत्रकार ।।

मैंने राजेंद्र माथुर जी के साथ दो पारियों में काम किया। पहले नईदुनिया और बाद में नवभारत टाइम्स में। आज उनके बिना हिंदी पत्रकारिता को 31 साल हो गए हैं।जब राजेन्द्र माथुर पत्रकारिता के संसार से विदा हुए, तब इंटरनेट और मोबाइल चलन में नहीं थे। सोशल मीडिया और वाट्सएप मीडिया भी नहीं था। टीवी के इतने प्राइवेट चैनल भी नहीं थे। पत्रकारिता मूल रूप से प्रिंट तक ही सीमित थी और प्रिंट में भी पत्रकारिता की अलग-अलग शाखाएं थी
 
राजेंद्र माथुर के दौर में पत्रकारिता में जिस तरह के बदलाव हो रहे थे, अब उससे अलग तरह के बदलाव हो रहे है। ये बदलाव तेज गति वाले है, किसी आंधी या तूफान की तरह। जिस बात को हम हिंदी पत्रकारिता में दस साल पहले सत्य मानते थे, अब वह कहीं नजर नहीं आती और आज हम जिस पत्रकारिता को देख रहे है, वह पांच साल बाद अलग होगी। अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे राजेन्द्र माथुर के लेख टाइम्स ऑफ इंडिया में भी प्रमुखता से छपते रहते थे और टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार मुझसे पूछते थे कि इतनी अच्छी अंग्रेजी लिखने वाले राजेन्द्र माथुर आखिर टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक क्यों नहीं बन जाते?
 
राजेंद्र माथुर की केवल अंग्रेजी ही अच्छी नहीं थी, उनके पास नई भाषा को गढ़ने वाले मुहावरे थे। वे बातों को रूपक शैली में लिखते थे और वह शैली लोगों को बहुत पसंद आती थी। इमरजेंसी के दिनों में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के बहाने भारत में घट रही घटनाओं को लेकर इस तरह लिखा कि कोई भी आदमी आसानी से समझ सकता था कि आखिर यह बात किस संदर्भ में कही जा रही है। वामपंथ और दक्षिणपंथ को समझने की उनकी विशेषता थी कि वे जब इन पंथों के बारे में लिखते, तब वह पठनीय और विचारणीय बात हो जाती। समाजवाद को लेकर उन्होंने जो कुछ लिखा, वह आज भी लोगों को याद है। हिंदी पत्रकारिता की शक्ति को उन्होंने आधी शताब्दी पहले ही समझ लिया था। वे कहते थे कि भारत के सभी हिंदी भाषी राज्यों की राजधानी से ऐसे हिंदी अखबार निकल सकते है, जिनका मुकाबला दुनिया के श्रेष्ठतम अखबार भी नहीं कर पाएंगे। अगर अभी (उस दौर में) हिंदी पत्रकारिता को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जहां उसे होना चाहिए, तो इसका कारण यह है कि हिंदी पत्रकारिता में तकनीक और शिल्प को प्रमुखता नहीं मिल रही है।
 
वे बार-बार कहते थे कि हिंदी पत्रकारिता तभी शिखर पर होगी, जब हिंदी के पत्रकार और अखबार अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं से बेहतर काम करे। हिंदी के पाठकों के क्रयशक्ति बढ़ने के साथ ही हिंदी की शक्ति भी बढ़ने लगेगी। अंग्रेजी पत्रकारिता के प्रोफेशनलिज्म के आगे हिंदी पत्रकारिता में वह प्रोफेशनलिज्म नजर नहीं आता। जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन हिंदी का ही बोलबाला होगा। कुछ मामलों में राजेंद्र माथुर के विचार बहुत स्पष्ट थे। किसी भी अखबार को पसंद करने के पीछे वे इसकी भाषा नहीं, बल्कि उस अखबार के स्तर को महत्व देते थे।
 
भाषा और देश में से किसी का चुनाव करना हो, तो उनका स्पष्ट कहना था कि देश है तो भाषा है। संपादक के रूप में उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को संपन्न बनाने के लिए नए-नए प्रयोग किए। अखबार की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए उसके वैचारिक पक्ष का भी पूरा ध्यान रखा। साथ ही पाठकों में लोकप्रिय तत्वों का भी समावेश करते चले गए। राजेंद्र माथुर ऐसे संपादक थे, जिनके नेतृत्व में हर विचारधारा के पत्रकार काम करते रहे। अपने साथी पत्रकारों की प्रतिभा का मूल्यांकन उन्होंने विचारधारा के आधार पर नहीं किया। सभी सहकर्मियों की विचारधारा का भी वे सम्मान करते रहे और मौका पड़ने पर उनसे चर्चा भी करते रहे। अलग-अलग भाषाएं जानने वाले और अलग-अलग धर्म और जाति के पत्रकार वे अपने अखबार से जोड़ते गए। नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक के रूप में भी उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विशेषज्ञ पत्रकारों की नियुक्ति करवाई। गाहे बगाहे वे खुद भी ग्रामीण इलाकों में जाते और आम आदमी के चश्मे से वहां की जिंदगी और समस्याओं को देखने और समझने की कोशिश करते। उन्होंने प्रमुख हिंदी भाषी राज्यों की राजधानी से हिंदी अखबार शुरू करने की पहल की थी। लखनऊ-पटना और जयपुर से अखबार के नए संस्करण शुरू किए गए थे। इससे अखबार का वितरण आसान हुआ।
 
जब चांद पर मानव के कदम पड़े, तब उन्होंने अपने अखबार में एक विशेष अंक प्रकाशित किया था, जिसमें मानव के चंद्र अभियान की संपूर्ण सचित्र और वैज्ञानिक यात्रा वर्णन था। इतने अच्छे विशेषांक उस दौर में अंग्रेजी के अखबार भी नहीं निकाल पाए थे। संपादकीय पृष्ठ पर समकालीन कविता प्रकाशित करने का प्रयोग भी उन्होंने किया था और प्रतिदिन व्यंग कॉलम भी उन्होंने प्रकाशित करना शुरू किया। राजेंद्र माथुर अखबार के संपादक थे, तो संपादक ही रहे, उन्होंने अखबार का प्रबंधक बनने की कोशिश नहीं की। उन्हें जब प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी जाने की बात होती, तब वे कन्नी काट जाते। उनकी अधिकांश चिंताएं समाचार पत्र की गुणवत्ता को लेकर ही रहती। समाचार पत्र किस तरह और धंधे करें, नेताओं से संपर्क करें, पेड न्यूज छापे, इवेंट आदि का आयोजन कर उगाही करें जैसे कामों में उनकी रूचि शायद ही होती। आज के दौर में प्रकाशन संस्थाओं को ऐसे चिंतनशील पत्रकारों की आवश्यकता कम ही होगी।
 
राजेंद्र माथुर के जाने के बाद इन 31 वर्षों में पत्रकारों की एक नई पीढ़ी तैयार हो चुकी है। 1991 में जब उनका निधन हुआ था, तब वर्तमान के पत्रकारों की एक बड़ी संख्या पत्रकारिता का ककहरा सीख रही थी। अब ये सब लोग युवा हो चुके है और इनके लिए पत्रकारिता के मायने बदल चुके है। समाचार प्रकाशन संस्थानों के लिए भी अब पत्रकारिता का अर्थ कुछ और हो गया है। दौर कोई भी हो, राजेंद्र माथुर का महत्व कम नहीं होने वाला।

(श्री राजेंद्र माथुर का यह फोटो 1982 का है और यह उन्होंने नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बनने पर बैनेट, कोलमैन एंड कंपनी के एच आर विभाग के आग्रह पर दफ्तर में जमा करने के लिए खिंचवाया था.)  

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