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पूरन डावर ने उठाया सवाल- आखिर कौन जिम्मेदार है उद्योगों की दुर्दशा का

मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में गिरावट थम नहीं रही, सरकार लगातार अनेको अनूठी योजनाएं-मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, मुद्रा योजना जैसे उपायों में जुटी हुई है

Last Modified:
Monday, 17 June, 2019


पूरन डावर

मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में गिरावट थम नहीं रही, सरकार लगातार अनेको अनूठी योजनाएं-मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, मुद्रा योजना जैसे उपायों में जुटी हुई है। सरकार की प्रतिबद्धता लगातार स्किल डिवेलपमेंट के क्षेत्र में  प्रयास, अलग से कौशल विकास मंत्रालय के साथ एमएसएमई, एचआरडी, उद्योग मंत्रालय सभी के अथक प्रयासों से नजर आ रही है, पर उधर अमेरिका चीन ट्रेड वार के कारण बढ़ती सम्भवनाएं, अथाह विश्व बाज़ार में बढ़ती हुयी देश की मांग। अकेले अमेरिका विश्व के उपभोक्ता बाज़ार में 24% हिस्सेदारी रखता है। भारत को विश्व की उत्पादन फ़ैक्टरी के रूप में देख रहा है, भारत में चीन का विकल्प तलाश रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को नए भारत के रूप में पेश किया है, साख बनाने के प्रयास किये है। जिस देश को मात्र ताजमहल के नाम से जाना जाता था, अब 5 साल में विश्व की सर्वाधिक उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जाने लगा है अपना ये देश।

विश्व के विकास की परिकल्पना भी करें। विकास की गति ऊपर से नीचे की ओर आ रही ही, चीन के बाद हमारी बारी है। कुछ समय पहले लगता था कि हमारी बारी कहीं खो न दें लेकिन अब उम्मीद लगने लगी है बारी नहीं जायेगी।

उद्यमियो, सरकार और विशेषतौर पर देश की नौकरशाही जिस पर सारा नियमन एवं प्रबंधन है। ऐसे मे बहुत अहम है कि सबको मानसिकता में बदलाव लाना होगा।

उद्यमियों को सरकार से अपनी अपेक्षाओ को सीमित करना होगा, अपने मस्तिष्क में स्पष्ट भरना होगा उद्योग उद्यमी बनाते है न कि सरकार। उद्योग बैसाखियो पर नहीं चल सकते। मात्र सब्सिडी पर आधारित उद्योग घातक हैं। उद्योग लगाने से पूर्व उसकी व्यवहारता को समझना ज़रूरी है।

 उद्यमियो को ‘बॉटम लाइन’ के बजाय ‘टॉप लाइन’ पर ध्यान  देना होगा। अपनी सोच बड़ी करनी होगी, लाभ में भी पारदर्शिता लानी होगी। यह तय करना है कि आप 200 रुपये का व्यापार कर 100 रुपये कमाने से संतुष्ट होते है या फिर 2000 रुपये का व्यापार कर 200 रुपये कमाकर। 100 रुपये की स्थिति आरामदायक हो सकती है लेकिन ऐसी मानसिकता के साथ आप आगे नहीं बढ़ सकते।

देश को आवश्यकता रोज़गार की है। आपको बड़ी छलांग लगानी होगी। आप तकनीक की ओर नहीं बढ सकते जब तक कि आप बड़ा टर्नओवर न करें। आप 1 करोड़ का व्यापार कर 20 लाख कमा सकते हैं। 20 लाख कमाकर आप मारुति ख़रीद सकते हैं मर्सेडीज़ नहीं। 10 करोड़ से 50 लाख भी कमायेंगे तो बढ़ते टर्नओवर से आप एडवांस्ड तकनीक भी ख़रीद सकते हैं।

उद्योगों को सतत विकास के लिये आवश्यक पर्यावरण से लेकर, सामाजिक सुरक्षा, औद्योगिक सुरक्षा, अग्नि सुरक्षा, विद्युत सुरक्षा, श्रम नियमो का यथासंभव पालन ही आपको आगे ले जा सकते हैं..

अपने निवेश को रियलस्टेट से हटा कर उद्योगों में लगाना होगा। उद्योगों की दर को धकेलने में रियलस्टेट का बड़ा हाथ है।

नौकरशाही को अनुपालन नियमो का समग्र रूप में पवित्रता से पालन कराना होंगा। बाल की खाल निकालने की प्रवृति के बजाए उपलब्ध संसाधनों और परिस्थितियों के अनुसार अनुपालन में सहयोग कर ही बेहतर भविष्य निर्माण हो सकेगा।

सरकार से सुरक्षित औद्योगिक वातावरण की अपेक्षा है। सही मायने में ‘सिंगल विंडो’  के जरिए सारे अनुपालन होने चाहिए। पर्यावरण, सामाजिक सुरक्षा, विद्युत सुरक्षा, अग्नि सुरक्षा जैसी सुविधायों के लिए स्वतंत्र संस्थाओं द्वारा कार्यान्वयन किया जाए, इसमें सरकार क़तई नहीं हो। नौकरशाही के हटते ही अनुपालन स्वतः हो जाएगा। स्वतंत्र संस्थाएं समयबद्ध तरीक़े से अनुपालन कराएगी।

उद्योगों को बढ़ाना है तो संवेदनशील टीटीज़ेड सहित किसी भी क्षेत्र में उद्योगों पर प्रतिबंध क़तई नहीं लगाना चाहिए। सुदृढ़ पर्यावरण अनुपालन, वायु प्रदूषण एवं डिस्चार्ज मीटर अनिवार्य किए जा सकते हैं जो सीधे विभाग से जुड़े हों।

मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर, बैंकिंग की स्थापना, करदाताओं की सामाजिक सुरक्षा योजनाएं आदि पर फोकस किया जाना चाहिए क्योंकि यदि रोज़गार देने वालों की ही सामाजिक सुरक्षा नहीं होंगी तो श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा कैसे कर पायेंगे।

कौशल विकास को एक आंदोलन के तौर पर शिक्षा का मुख्य भाग बनाना होगा। देश का हर व्यक्ति निपुण हो इसलिएक्लस्टर सेंट्रिक शिक्षा की शुरुआत करनी होगी। लेदर, ओटोमोबाइल, टैक्टाइल जैसे क्षेत्रों के लिए प्रैक्टिकल एजुकेशन, पर्यटन की उत्तम शिक्षा और विशुद्ध ग्रामीण क्षेत्रों में खेती और खेती उत्पादों की शिक्षा आदि की व्यवस्था। शिक्षा को रोजगार का मुख्य भाग बनाने की आवश्यकता है। उद्यमियों को भी मानसिकता बनानी होगी कोई भी कार्य छोटा नहीं है, वही जब पढ़ लिख कर व्यवस्थित रूप से किया जाता है तो एक सफल मॉडल बन जाता है। हलवाई कैटर्स हो जाता है, सफाई-धुलाई वाले होमकीपिंग बन जाने हैं, रसोइया शेफ बन जाता है आदि।

(लेखक स्वयं एक बड़े व सफल उद्यमी रहे हैं)

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टाटा ग्रुप का मालिक अब टाटा नहीं! पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब'

टाटा ग्रुप की 30 बड़ी कंपनी है। नमक से लेकर सॉफ़्टवेयर बनाता है, चाय बनाता है, कारें बनाता है, हवाई जहाज़ चलाता है। स्टील बनाता है, बिजली बनाता है। ये सब कंपनियां अपना कारोबार ख़ुद चलाती है।

Last Modified:
Monday, 14 October, 2024
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।

आम बोलचाल की भाषा में हम कहते हैं कि मुकेश अंबानी रिलायंस के मालिक हैं या गौतम अदाणी अपने ग्रुप के मालिक हैं। ये दोनों परिवार अपने अपने बिज़नेस के 100% मालिक नहीं है। अंबानी परिवार के पास रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के क़रीब 49% शेयर है जबकि अदाणी परिवार के पास अपनी कंपनियों के 60% से लेकर 72% तक शेयर है लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि टाटा परिवार के पास टाटा सन्स के 3% शेयर है बल्कि उनसे ज़्यादा शेयर तो मिस्री परिवार के पास हैं। हिसाब किताब में समझेंगे कि टाटा परिवार बिना शेयरों के कैसे ग्रुप को कंट्रोल करता है।  

टाटा ग्रुप की 30 बड़ी कंपनियाँ है। नमक से लेकर सॉफ़्टवेयर बनाता है, चाय बनाता है, कारें बनाता है, हवाई जहाज़ चलाता है। स्टील बनाता है, बिजली बनाता है। ये सब कंपनियाँ अपना कारोबार ख़ुद चलाती हैं। टाटा ग्रुप का टर्न ओवर 13 लाख करोड़ के आसपास है। शेयर बाज़ार में लिस्टेड कंपनियों की क़ीमत 33 लाख करोड़ रुपये के आसपास है। इन कंपनियों में टाटा सन्स के शेयर है। वो इन कंपनियों के कुछ हिस्से की मालिक है। यही टाटा सन्स सब कंपनियों को टाटा ग्रुप का हिस्सा बनाता है। ये ग्रुप 1868 में जमशेद जी टाटा ने मुंबई में स्थापित किया था।

टाटा सन्स का मालिक सीधे टाटा परिवार नहीं है। टाटा सन्स के सबसे बड़े शेयर होल्डर टाटा ट्रस्ट है। टाटा सन्स के 66% से ज़्यादा शेयर टाटा ट्रस्ट के पास है।  टाटा परिवार इन्हीं ट्रस्ट के ज़रिए पूरे ग्रुप को कंट्रोल करता है। रतन टाटा के बाद अब उनके सौतेले भाई नोएल टाटा दोनों ट्रस्ट के चेयरमैन बने हैं। यह ट्रस्ट टाटा सन्स में एक तिहाई डायरेक्टर नियुक्त करने का अधिकार रखता है।

इसका उपयोग कर रतन टाटा ने टाटा सन्स के चेयरमैन सायरस मिस्री को हटा दिया था यानी रोज़मर्रा के फ़ैसलों में ट्रस्ट भले दख़लंदाज़ी ना करें वो टाटा सन्स में बड़े फ़ैसले ले सकता है। यही टाटा सन्स ग्रुप की बाक़ी कंपनियों में दख़ल रखता है। ट्रस्ट को टाटा सन्स से हर साल जो डिवीडेंड मिलता है उसे चैरिटी में खर्च करता है। टाटा सन्स की कमाई ग्रुप की कंपनियों से मिलने वाले डिवीडेंड से होती है।

टाटा कंपनियों के ज़्यादा मुनाफ़े का मतलब है चैरिटी के लिए ज़्यादा पैसे। टाटा ट्रस्ट को पिछले 923 करोड़ रुपये डिवीडेंड मिला था। बिज़नेस का यह अनोखा मॉडल क़रीब सौ साल से चल रहा है।

रतन टाटा ने इसमें पिछले कुछ सालों में बदलाव भी किए। उन्होंने 2012 में सायरस मिस्री को अपना उत्तराधिकारी चुना। मिस्री परिवार के पास 18.6% शेयर है। परिवार के बाहर से वो दूसरे चेयरमैन थे। विवाद के बाद मिस्री को हटाया गया। टाटा सन्स का चेयरमैन पारसी होता था। उन्होंने TCS के CEO एन चंद्रशेखर को चेयरमैन बनाया। अब तक टाटा सन्स का चेयरमैन ही टाटा ट्रस्ट का भी चेयरमैन होता था। रतन ने टाटा सन्स छोड़ने के बाद भी अपने पास रखा और अब यह ज़िम्मेदारी उनके सौतेले भाई नोएल टाटा को मिली है यानी सारी शक्ति एक व्यक्ति के हाथ में नहीं रहेगी।  

(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)

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सरसंघचालक के व्याख्यान में समाज और सामाजिक सुधार पर जोर: अनंत विजय

विजयादशमी पर आरएसएस अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। अकादमिक और पत्रकारिता के क्षेत्र में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम सुनकर आगबबूला होने वाले लोगों की बड़ी संख्या है।

Last Modified:
Monday, 14 October, 2024
rss

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

विजयादशमी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस लंबी यात्रा में संघ ने बहुत उतार चढ़ाव देखे। स्वयंसेवकों की निरंतर तपस्या ने इसको विश्व का सबसे बड़ा संगठन बना दिया। एक ऐसा संगठन जो व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र को सशक्त करने में लगा है। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 100 वर्ष तक की यात्रा पूरी करने में विरोध नहीं झेलना पड़ा। अकादमिक और पत्रकारिता के क्षेत्र में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम सुनकर ही आगबबूला होनेवाले लोगों की बड़ी संख्या रही है।

अकादमिक जगत में सैकड़ों पुस्तकें लिखी गईं जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्रियाकलापों को बिना जाने धारणा के आधार पर निष्कर्ष निकाले गए। अब भी निकाल रहे हैं। अंग्रेजी के कई लेखक जो स्वयं को लिबरल कहते हैं वो सहजता के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मिलिटेंट संगठन लिख रहे हैं। संघ को कट्टरपंथी संगठन और प्रगतिशील नहीं माननेवाले अकादमिक जगत के तथाकथित विद्वानों को विजयादशमी के अवसर पर सरसंघचालक मोहन भागवत का व्याख्यान सुनना और समझना चाहिए।

अपने इस व्याख्यान में मोहन भागवत जी ने जिस तरह से भारतीय समाज के यथार्थ को उद्घाटित किया उसके गहरे निहितार्थ हैं। समाज में क्या चल रहा है, किस तरह से भारतीय समाज को बांटने की राजनीति हो रही है, किस तरह से भारत को कमजोर करने के लिए अंतराष्ट्रीय स्तर पर रणनीति बनाई जा रही है, किस तरह से देश के कुछ लोगों और समूहों को प्रभावित करके भारत विरोधी ताकतें सक्रिय हैं उन सब पर मोहन भागवत जी ने विस्तार से बोला। समाज को सचेत भी किया।

मोहन भागवत जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि पिछले कुछ वर्षों में भारत की धमक पूरे विश्व में बढ़ी है। देशहित की प्रेरणा से युवा शक्ति, मातृशक्ति, उद्यमी किसान, श्रमिक, जवान, प्रशासन, शासन सभी से प्रतिबद्धतापूर्वक अपने कार्य में डटे रहने से विश्वपटल पर भारत की छवि, शक्ति, कीर्ति व स्थान निरंतर उन्नत हो रहा है। यह कहने के बाद वो समाज को चेताते भी हैं, हम सबके इस कृतनिश्चय की परीक्षा लेने के लिए कुछ मायावी षडयंत्र हमारे सामने उपस्थित हुए हैं जिनको ठीक से समझना आवश्यक है।

अगर पूरे देश पर नजर डालें तो चारो तरफ के क्षेत्रों को अशांत व अस्थिर करने के प्रयास गति पकड़ते हुए दिखाई देते हैं। मोहन भागवत के भाषण को अगर समग्रता में विश्लेषित करने की कोशिश करें तो इस चेतावनी के बाद वो उन अदृष्य अंतराष्ट्रीय शक्तियों की भी चर्चा करते हैं जो पूरी दुनिया में अपने स्वार्थ के कारण लोकतंत्र के नाम पर दूसरे देशों में गड़बड़ियां फैलाने का कार्य करते हैं। वो अरब स्प्रिंग से लेकर बांग्लादेश में हिंसक तख्तापलट का उदाहरण देते हुए हिंदू समाज को संगठित और सबल बनने की बात को रेखांकित करते हैं।

डा मोहन भागवत समाज में भारतीय संस्कारों के नष्ट करनेवाली शक्तियों की पहचान करते हुए उनसे सतर्क भी करते हैं। डीप स्टेट, वोकिज्म, कल्चरल मार्क्सिस्ट जैसे शब्दों की चर्चा करते हुए इसको सांस्कृतिक परंपराओं का घोषित शत्रु करार देते हैं। वो बेहद तीखे शब्दों में इनपर आक्रमण करते हैं, सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं तथा जहां जहां जो भी भद्र, मंगल माना जाता है उसका समूल उच्छेद इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है।

समाज मन बनाने वाले तंत्र व संस्थानों यथा शिक्षा तंत्र, शिक्षा संस्थान, संवाद माध्यम, बौद्धिक संवाद से अपने प्रभाव में लाना, उनके द्वारा समाज का विचार, संस्कार तथा आस्था को नष्ट करना यह इस कार्यप्रणाली का प्रथम चरण है। इसको हम इस तरह से भी समझ सकते हैं कि हिंदू त्योहारों के समय इस समूह को पर्यावरण की चिंता सताने लगती है। हिंदू धर्म प्रतीकों को पिछड़ेपन की निशानी बताने का अभियान चलाया जाता है। हिंदू समाज की किसी एक घटना से पूरे समाज को प्रश्नांकित किया जाता है। समाज में टकराव की संभावनाओं की निरंतर तलाश की जाती रहती है।

जैसे ही कहीं कोई फाल्ट लाइन मिलती है तो ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं कि प्रतीत होता है कि ये समस्या बहुत बड़ी है। प्रत्यक्ष टकराव की जमीन भी तैयार कर दी जाती है। इसको नागरिकता संशोधन कानून के समय, किसान आंदोलन के समय और 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान में देखा जा सकता है। किस तरह से एक छोटी सी घटना को इकोचैंबर में बैठे अकादमिक, लेखन, सिनेमा से जुड़े लोगों ने गुब्बारे की तरह फुला दिया था। मोहन भागवत की राय है कि देश में बिना कारण कट्टरपन को उकसानेवाली घटनाओँ में अचानक वृद्धि हो रही है।

परिस्थिति या नीतियों को लेकर मन में असंतुष्टि हो सकती है परंतु उसको व्यक्त करने या विरोध करने के प्रजातांत्रिक मार्ग होने चाहिए। उनका अवलंबन न करते हुए हिंसा पर उतर आना और भय पैदा करने के प्रयास करने को वो बेहद तल्ख शब्दों में गुंडागर्दी कहते हैं। अकारण हिंसा फैलाकर तंत्र को बाधित करने के इन प्रयासों को बाबासाहेब अराजकता का व्याकरण कहते थे।

विजयादशमी पर डा मोहन भागवत के भाषण को दो हिस्सों में बांटकर देखा जाना चाहिए। पहला हिस्सा जिसमें वो सबल राष्ट्र की बात करते हैं। वो हिंदुओं के संगठित होने की अपेक्षा करते हैं। कहते हैं कि इस देश को एकात्म, सुख शांतिमय, समृद्ध और बल संपन्न बनाना यह सबकी इच्छा है और सबका कर्तव्य भी है। इसमें हिंदू समाज की जिम्मेवारी अधिक है। यहां वो बहुत अच्छा उदाहरण देते हैं, समाज स्वयं जगता है, अपने भाग्य को अपने पुरुषार्थ से लिखता है तब महापुरुष, संगठन, संस्थाएं, शासन, प्रशासन आदि सब सहायक होते हैं।

शरीर की स्वस्थ अवस्था में क्षरण पहले आता है बाद में रोग उसको घेरते हैं। वो जब सबलता की बात करते हैं तो एक सुभाषित के माध्यम से कहते हैं कि दुर्बलों की परवाह तो देव भी नहीं करते। अपने भाषण के दूसरे हिस्से में वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष में संगठन की कार्ययोजना प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक समरसता, पर्यावरण, संस्कार जागरण, नागरिक अनुशासन और स्व गौरव आदि की बात करते हैं। वो इस बात की अपेक्षा भी जताते हैं कि संवाद माध्यमों का उपयोग करनेवालों को इनका उपयोग समाज को जोड़ने के लिए करना चाहिए ना कि तोड़ने के लिए, सुसंस्कृत बनाने के लिए हो ना कि अपसंस्कृति फैलाने के लिए।

अपने व्याख्यान में उन्होंने ओटीटी प्लेटफार्म पर चलनेवाली सामग्री की गुणवत्ता को लेकर चिंता प्रकट की। ओटीटी पर आनेवाली सामग्री पर कानून के नियंत्रण पर भी बल दिया। यह सरकार के लिए भी एक संदेश है। जब संस्कारों और उसके क्षरण की बातें होंगी या जब सरकार के विरुद्ध जन के मानस में गलत छवि आरोपित करने की बात होगी तो ओटीटी प्लेटफार्म्स पर परोसी जानेवाली मनोरंजन सामग्री पर विचार करना ही होगा।

समाज को संगठित करते हुए सबल बनाने की बात करते हुए मोहन भागवत ने ये भी स्पष्ट किया कि सबलता शील के साथ आनी चाहिए। विश्व मंगल की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था में भारत को एक सबल राष्ट्र के तौर पर स्थापित करने के लिए प्रत्येक भारतवासी को कार्य करना चाहिए। उन तत्वों की पहचान करके उनको परास्त करना होगा जो भारत के सिस्टम में रहते हुए भारत को कमजोर करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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चुनावी धन बल और मीडिया की भूमिका से विश्वसनीयता को धक्का: आलोक मेहता

जो मीडिया कर्मी हरियाणा चुनाव या पहले किसी चुनाव में ऐसे सर्वे या रिपोर्ट पर असहमति व्यक्त करते थे, उन्हें पूर्वाग्रही और सत्ता का पक्षधारी इत्यादि कहकर बुरा भला सुनाया जाता है।

Last Modified:
Monday, 14 October, 2024
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हरियाणा में पहली बार नाक नहीं कटी है। इमरजेंसी के तत्काल बाद हुए लोक सभा चुनाव में दिल्ली और कई राज्यों के पुराने अख़बारों की फाइल्स निकालकर देख लीजिये। कांग्रेस और इंदिरा गाँधी के पक्ष में लहर की ख़बरें राष्ट्रीय कहे जाने वाले अख़बारों के पहले पन्ने पर सबसे ऊपर लीड की तरह छपती रहीं। कांग्रेस पार्टी के प्रचार से जुड़े एक प्रमुख रणनीतिकार मेरे पत्रकार मित्र थे। इसलिए बताते थे कि दिल्ली से चुनाव क्षेत्रों में जाने वाले कुछ चुनिंदा पत्रकारों को यात्रा के लिए टिकट, सुविधाएं तथा हैसियत के हिसाब से कितने हजार रुपए दिए जा रहे हैं।

स्वाभाविक है हेडलाइन विजय पताका की ही होंगी। पराकाष्ठा यह हुई कि पार्टी और स्वयं श्रीमती गांधी की भारी पराजय के दो सप्ताह बाद एक बड़े अख़बार के ब्यूरो प्रमुख ने मेरे रणनीतिकार मित्र से फोन कर कहा कि चुनावी यात्रा में तो उसके 12 हजार रुपए अधिक खर्च हुए, वह बकाया हिसाब कर दिलवा दो। एक अन्य पत्रकार ने चुनावी प्रचार सामग्री तैयार करने के लिए काम के बकाया बीस हजार रुपए नहीं दिलवाने पर घर के सामने धरना देने की धमकी भरा पत्र ही भेज दिया था। मेरे मित्र ने लगभग रोते हुए कहा कि , बताइये मैंने तो तब भी केवल पार्टी के कोषाध्यक्ष को कुछ लोगों के नाम बताकर आवश्यक धनराशि सुविधा आदि की सलाह दी थी। अब मैं पराजित पार्टी से पैसे कहाँ से दिलवा दूँ।

वैसे उससे पहले 1974 के आस पास भी उत्तर प्रदेश विधान सभा के दौरान भी पार्टी की विज्ञप्ति को खबर की तरह बनाकर लिफाफे में सौ पांच सौ रुपए के साथ छपवाने की जानकारी उन्ही मित्र से मिलती थी। लेकिन तब आज की तरह इलेक्ट्रानिक मीडिया, सोशल मीडिया नहीं था। इसलिए सार्वजनिक चर्चा नहीं हुई।  वर्तमान दौर में कांग्रेस की हरियाणा में बड़ी विजय के दावे करने वाले पत्रकारों, मीडिया समूह, टीवी समाचार चैनल्स, सर्वे कंपनियों और स्वतंत्र यूं ट्यूबर्स , वेबसाइट, फेस बुक के स्वंतंत्र पत्रकार लेखकों की विश्वसनीयता पर सार्वजनिक चर्चा से सबकी छवि ख़राब हो रही है। लेकिन यह लेने वालों और देने वाले नेताओं , पार्टियों नेताओं के आत्म परीक्षण का ध्यान दिलाने वाला मुद्दा भी है।

तकलीफ इस बात की है कि जो मीडिया कर्मी हरियाणा चुनाव या पहले किसी चुनाव में ऐसे सर्वे या रिपोर्ट पर असहमति व्यक्त करते थे उन्हें पूर्वाग्रही और सत्ता का पक्षधारी इत्यादि कहकर बुरा भला सुनाया जाता है। इसमें भी कोई शक नहीं कि समाचारों या विश्लेषणों या विचारों में विभिन्न मत सही या गलत हो सकते हैं।  लेकिन पेड न्यूज़ या प्रचार का सिलसिला बढ़ना खतरनाक है। मीडिया के जिम्मेदार सम्पादकों और प्रेस कौंसिल जैसी संस्थाओं ने पहले भी इस समस्या को उठाकर आचार संहिता बनाई है।

मैंने पत्रकारिता सम्बन्धी अपनी पुस्तक 'पावर प्रेस एन्ड पॉलिटिक्स' के एक चैप्टर में ऐसी रिपोर्ट्स के प्रामाणिक अंशों का उल्लेख किया है। संसद, चुनाव आयोग और अदालतों ने भी कई बार इस मुद्दे को उठाया। देश के प्रसिद्ध संपादक कुलदीप नय्यर ने स्वयं एक नेता से हुई बातचीत के बारे में बताया था कि चुनाव में  उन्होंने दो करोड़ रुपए मीडिया में प्रचार के लिए दिया था। पेड न्यूज़ का एक दुखड़ा एक अन्य नेता ने सुनाया। उसने कहा कि चुनाव के दौरान कुछ लाख रुपए देने के बाद अनुभव यह हुआ कि उनकी खबर के सामने विरोधी की खबर को पैसा लेकर छपी देखी तो बहुत तकलीफ हुई। राज्यों में तो कुछ मीडिया संस्थान खुले आम किसी नेता से जुड़े होने के लिए बदनाम रहते हैं।

ऐसे बहुत से मामले प्रेस कौंसिल की रिपोर्ट में भी दर्ज हैं। वैसे अब बड़ी विज्ञापन एजेंसियां प्रचार का काम संभाल रही हैं इसलिए वैधानिक रुप से पार्टी या उम्मीदवार के विज्ञापन पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। सर्वे कंपनियां भी पार्टी उम्मीदवार की स्थिति का पता लगाने के लिए काम करती हैं लेकिन विवाद नगद भुगतान से होने वाले प्रचार, कुप्रचार , पक्षपातपूर्ण सर्वे आदि पर है। क्या इसे धोखाधड़ी जैसा अपराध नहीं कहा जाएगा। चुनाव आयोग के पास ऐसी शिकायतें आती हैं लेकिन जांच, सबूत आदि की प्रक्रिया में महीनों वर्षों निकल जाते हैं। सवाल यह है कि नेता खुद इस जाल में क्यों फंसते फंसाते हैं? इससे उनकी और उनके काम के प्रचार की  विश्वसनीयता भी तो कम होती जा रही है।

इस सन्दर्भ में एक विदेशी राजदूत से हुई बातचीत का उल्लेख भी जरुरी है। राजदूत ने एक अंतरंग बातचीत में बताया था कि 'आप लोग मीडिया ग्रुप के लिए चुनावी सर्वे पर लाखों करोड़ों रुपए खर्च करते हैं। हम उनके छपने या टीवी चैनल पर आने का इन्तजार नहीं करते। हम भी अधिक धनराशि देकर उस सर्वे की कॉपी पहले ही अपनी टेबल पर मंगवा लेते हैं। वैसे मुझे तो बीस पच्चीस वर्षों पहले एक यूरोपीय देश में चुनाव के दौरान यह पता चला था कि संपन्न देश के कुछ संस्थान भारत में इस तरह के सर्वे के अभ्यास के लिए चुनिंदा भारतीय लोगों को शिक्षित प्रशिक्षित भी करते हैं।

बाद में अच्छी फंडिंग से वे भारत में सर्वे का काम करते हैं और उन विदेशी संस्थांओं या उनकी इंटेलिजेन्स एजेंसियों को अपनी रिपोर्ट देते हैं। शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के चुनाव , लोकतान्त्रिक व्यवस्था के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्रों और कुछ राजनीतिक या अन्य संगठनों द्वारा विदेशी इशारों पर काम करने की चर्चा अपने भाषणों में भी कर रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता ख़त्म करने के लिए विदेशी ताकतें मजदूरों , किसानों , आदिवासियों , महिलाओं के मुद्दों पर भड़काने, आंदोलन करने, हिंसा, उपद्रव के लिए भी कथित स्वयंसेवी संस्थाओं, समाचार माध्यमों,सोशल मीडिया को हथियार की तरह इस्तेमाल करती हैं।

संविधान निर्माताओं ने दुनिया भर की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करके श्रेष्ठ भारतीय संविधान के नियम कानून अभिव्यक्ति के अधिकारों का प्रावधान किया। उन्होंने वर्तमान विश्व परिदृश्य की कल्पना नहीं की होगी अथवा वह आज होते तो अपने बनाए नियम कानून बदलकर कुछ आवश्यक नियंत्रण का प्रावधान करते। इस समय तो राजनीति ही नहीं समाज के अन्य क्षेत्रों में किसी आचार संहिता को नहीं स्वीकारने की स्थितियां दिखने लगी हैं। इस गंभीर विषय पर संसद में सर्वानुमति से आवश्यक सुधारों, अनिवार्य आचार संहिता के निर्माण और सुप्रीम कोर्ट से भी स्वीकृति की जरुरत है। रावण की बुराइयों अथवा अँधेरे से उजाले और सामाजिक राजनीत्तिक प्रदूषण से मीडिया को भी बचाने के लिए संकल्प और प्रयासों की जरुरत है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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'S4M पत्रकारिता 40अंडर40' के विजेता ने डॉ. अनुराग बत्रा के नाम लिखा लेटर, यूं जताया आभार

इस कार्यक्रम में विजेता रहे ‘भारत समाचार’ के युवा पत्रकार आशीष सोनी ने अब इस आयोजन को लेकर एक्सचेंज4मीडिया समूह के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा के नाम एक लेटर लिखा है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 10 October, 2024
Last Modified:
Thursday, 10 October, 2024
Ashish Sony

समाचार4मीडिया पत्रकारिता 40 अंडर 40’ (40 Under 40) के तीसरे एडिशन के विजेताओं के नाम घोषित हुए करीब एक माह बीत चुका है। इनमें से एक विजेता ‘भारत समाचार’ के युवा पत्रकार आशीष सोनी ने अब इस आयोजन को लेकर एक्सचेंज4मीडिया समूह के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा के नाम एक लेटर लिखा है। इस लेटर में आशीष सोनी ने न सिर्फ इस आयोजन और डॉ. अनुराग बत्रा का आभार जताया है, बल्कि विजेता बनने के बाद के अपने अनुभवों को भी बयां किया है।  

आशीष सोनी के इस लेटर को आप यहां हूबहू पढ़ सकते हैं।

सादर प्रणाम, चरण स्पर्श सर

‘जीवन में लोग रुपया आसानी से कमा सकते हैं, लेकिन नाम कमाने में संघर्ष होता है’ यूपी के छोटे से जिले में मैंने पत्रकारिता करके कभी यह ख्वाब नही देखा था जिसको आपने एक चुटकी में पूरा कर दिया। मेरे द्वारा पत्रकारिता में किए गए कार्य को लोगों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सराहा लेकिन आपने मेरी इस कड़ी मेहनत को पंख देकर राजधानी के इतने बड़े मंच पर सराहा, जिससे जनपद में मेरा कद बढ़ा दिया है और अब काम करने का जुनून दुगुना हो गया है।

सर, मंच पर सीमित समय मे कुछ कम ही मैं बोल पाया लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूं कि आपने मुझे सम्मानित करने के लिए देश के जिन महान विभूतियों को आमंत्रित किया था उनसे प्रत्यक्ष रूप से मिलने के लिए मैंने कभी ख्वाब भी नहीं देखा था।

मैं अपने बारे में बताऊं आपको कि मेरे पिता एक ट्रैक्टर मैकेनिक हैं, छोटी मोटी मशीनें बनाकर उन्होंने मुझे पढ़ाया-लिखाया है, बुरे वक्त में हमनें कई वर्षों तक गाड़ियों की धुलाई करके सपने सजोने शुरू किए, पढ़ाई चलती रही पत्रकारिता शुरू हुई और अब धीरे-धीरे सबकुछ इतना बड़ा हो रहा है जिसकी मैंने कभी कल्पना नहीं की थी।

एक छोटे से पोर्टल से शुरू हुई पत्रकारिता, सर्किल न्यूज़ app फिर ETV भारत और अब आदरणीय संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा सर के आशीर्वाद से उनकी छत्रछाया में ‘भारत समाचार’ में काम कर रहा हूं। बीबीसी हिंदी में कुछ कंटेंट देकर बीबीसी की वेब कॉपी में मेरा नाम भी आया है, यह भी मेरे लिए गौरवशाली रहा है।

कार्यक्रम के दिन से ही श्री अनुराग बत्रा सर के बारे में जानने सुनने और पढ़ने की उत्सुकता बहुत बढ़ गई थी। एक महीने बीत जाने के बाद आज यह एहसास हुआ कि आपको पढ़ना बेहद सरल है। आप एक ऐसी महान शख्सियत हैं, जिन्हें लोग देखकर ही अपना बना लें। आप एक ऐसी अदृश्य शक्ति हैं जिसे समझा, पढ़ा नहीं जा सकता सिर्फ महसूस किया जा सकता है। मैं ईश्वर से यह प्रार्थना करूंगा कि आप हमेशा स्वस्थ रहें आपका पूरा परिवार स्वस्थ रहें। मेरी तरफ से आपको ढेर सारा प्यार।

40under40 के अवॉर्ड ने मेरी पत्रकारिता और मेरे जीवन मे बड़ा बदलाव ला दिया है। यह सब आपके आशीर्वाद से ही मुमकिन हो पाया है सर। आपके दिए गए मंच पर खड़े होना या आपका शुक्रिया करने भर की भी मेरी औकात नहीं है फिर भी आपके चरण स्पर्श करके आपके आशीर्वाद का आकांक्षी हूँ।

आशीष सोनी, महराजगंज(यूपी)

समाचार4मीडिया 40under40 में विजेता।

आपका मार्गदर्शन व आशीर्वाद बना रहे सर।

गौरतलब है कि एक्सचेंज4मीडिया (exchange4media) समूह की हिंदी वेबसाइट 'समाचार4मीडिया' (samachar4media.com) द्वारा तैयार की गई समाचार4मीडिया पत्रकारिता 40 अंडर 40’ (40 Under 40)' की लिस्ट से 12 अगस्त 2024 की शाम को पर्दा उठा था। यह इस कार्यक्रम का तीसरा एडिशन था। दिल्ली में स्थित ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ (IIC) के मल्टीपर्पज हॉल में 12 अगस्त 2022 को आयोजित एक कार्यक्रम में इस लिस्ट में शामिल हुए प्रतिभाशाली पत्रकारों के नामों की घोषणा की गई और उन्हें सम्मानित किया गया था। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि की भूमिका निभाई थी।

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हरियाणा की जीत पीएम नरेंद्र मोदी में नई ऊर्जा का संचार करेगी: रजत शर्मा

मोदी की ये बात सही है कि कांग्रेस जब-जब चुनाव हारती है तो EVM पर सवाल उठाती है, चुनाव आयोग पर इल्जाम लगाती है, ये ठीक नहीं है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 10 October, 2024
Last Modified:
Thursday, 10 October, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

इसमें दो राय नहीं कि हरियाणा में नरेंद्र मोदी की जीत बीजेपी के लिए संजीवनी का काम करेगी। बीजेपी के जिन नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी की क्षमता पर शक होने लगा था, उनमें नई हिम्मत का संचार होगा। जिन लोगों के मन में ये सवाल था कि क्या मोदी की लोकप्रियता कम हुई है, उनको जवाब मिल गया होगा। जैसे बीजेपी को इस जीत की उम्मीद नहीं थी, वैसे ही कांग्रेस को इस हार की ज़रा भी आशंका नहीं थी।

ये हार कांग्रेस के उन नेताओं का मनोबल गिराएगी जिन्हें ये भरोसा हो चला था कि राहुल गांधी को कोई ऐसी शक्ति मिल गई है जिससे वो कांग्रेस को पुनर्जीवित कर देंगे। अब उन्हें लग रहा होगा कि राहुल की जड़ी-बूटी तो फेक निकली। हरियाणा में कांग्रेस ने सारी ताकत झोंक दी थी। लड़ाई इस बात के लिए नहीं हो रही थी कि पार्टी कितनी सीटें जीतेगी। संघर्ष इस बात पर होने लगा था कि जीत के बाद मुख्यमंत्री कौन बनेगा? जो राहुल गांधी सोच रहे थे कि अब वो एक के बाद एक प्रदेश जीतते जाएंगे और मोदी को हरा देंगे, उन्हें झटका लगेगा। जिन राहुल गांधी को मोदी के कंधे झुके हुए लगने लगे थे, उन्हें सपने में अब 56 इंच की छाती दिखाई देगी।

हरियाणा की ये जीत नरेंद्र मोदी में भी नई ऊर्जा का संचार करेगी और अब बीजेपी  झारखंड और महाराष्ट्र में नए जोश के साथ लड़ेगी। महाराष्ट्र और झारखंड में कांग्रेस की bargaining power कम हो जाएगी। अब एक हरियाणा की जीत INDI अलायंस में राहुल गांधी की ताकत को कम कर देगी। मंगलवार को ही अलायंस के पार्टनर्स ने ये कहना शुरू कर दिया कि जहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधी टक्कर होती है, वहां कांग्रेस का जीतना मुश्किल हो जाता है। लेकिन सवाल ये है कि कांग्रेस की हार की वजह क्या है? इस सवाल का जवाब खोजने में कांग्रेस के नेताओं को वक्त लगेगा क्योंकि अभी वो हार के सदमे से ही नहीं उबरे हैं।

मोदी की ये बात सही है कि कांग्रेस जब-जब चुनाव हारती है तो EVM पर सवाल उठाती है, चुनाव आयोग पर इल्जाम लगाती है, ये ठीक नहीं है। केजरीवाल की ये बात सही है कि हरियाणा में कांग्रेस को अति आत्मविश्वास ले डूबा। कांग्रेस के नेता जीत पक्की मान चुके थे। राहुल को ये समझा दिया गया कि किसान बीजेपी के खिलाफ हैं, विनेश फोगाट के आने से जाटों और महिलाओं का वोट पक्का है, अग्निवीर स्कीम के कारण नौजवान भी बीजेपी के खिलाफ हैं, इसलिए अब बीजेपी की लुटिया डूबनी तय है। माहौल ऐसा बनाया गया मानो कांग्रेस की वापसी पक्की है।

इसका असर ये हुआ कि कुर्सी का झगड़ा शुरू हो गया। रणदीप सुरजेवाला कैथल से बाहर नहीं निकले और कुमारी सैलजा घर बैठ गईं। इसका कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ। इस बार हरियाणा की जनता ने स्पष्ट संदेश दे दिया कि जो जमीन पर काम करेगा, जनता उसका साथ देगी। दूसरी बात, अब क्षेत्रीय और छोटी-छोटी परिवारवादी पार्टियों का दौर खत्म हो गया। जनता ने चौटाला परिवार को घर बिठा दिया। BSP और केजरीवाल को भी भाव नहीं दिया।

ये सही है कि शुरू में ऐसा लग रहा था कि हवा बीजेपी के खिलाफ है, दस साल की anti-incumbency थी लेकिन नरेन्द्र मोदी ने चुपचाप, खामोशी से रणनीति बनाई। सारा फोकस इस बात पर शिफ्ट कर दिया कि चुनाव सिर्फ हरियाणा का नहीं है, ये चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के बीच किसी एक को चुनने का है, परिवारवाद और जातिवाद के खिलाफ चुनाव है, चुनाव नामदार और कामदार के बीच है। मोदी का फॉर्मूला काम आया और हरियाणा ने इतिहास रच दिया।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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क्या रेट कट का टाइम आ गया है? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब'

रिज़र्व बैंक की मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी की बैठक सोमवार से हो रही है। लेकिन बैठक से पहले आयीं ज़्यादातर रिसर्च रिपोर्ट कह रही है कि रेट कट अभी नहीं होगा।

Last Modified:
Monday, 07 October, 2024
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।

अर्थव्यवस्था को लेकर सुर्खियाँ अच्छी नहीं है। जून तिमाही में GDP घटी है। GST कलेक्शन स्थिर सा हो गया है। HSBC मैन्युफ़ैक्चरिंग और सर्विसेज़ के इंडेक्स में गिरावट आई है। इन सुर्ख़ियों के परे पिछले हफ़्ते शेयर बाज़ार में भी जून के बाद सबसे बड़ी गिरावट आई है। उसका कारण हालाँकि इज़राइल- ईरान का तनाव, चीन के शेयरों में विदेशी निवेशकों की रुचि बताया जा रहा है। अब नज़र रिज़र्व बैंक पर है जिसको इस हफ़्ते तय करना है कि रेट कट करना है या नहीं।

हम हिसाब किताब में पहले चर्चा कर चुके हैं कि कोरोनावायरस के बाद महंगाई को क़ाबू करने के लिए रिज़र्व बैंक ने ब्याज दरों को बढ़ाना शुरू किया था। रिज़र्व बैंक को महंगाई 4% प्लस या माइनस 2% रखने का लक्ष्य केंद्र सरकार ने दिया है। महंगाई क़ाबू में है। अमेरिका में फ़ेडरल रिज़र्व ने तो ब्याज दरों में कटौती आधा फ़ीसदी की कटौती कर भी दी है क्योंकि वहाँ मंदी का ख़तरा मंडरा रहा है। भारत में अब तक तो ऐसे हालात नहीं बने हैं पर पिछले महीने भर से जो खबरें आ रही हैं वो चिंता बढ़ाने वाली है।

GST कलेक्शन स्थिर है मतलब माल या सर्विसेज़ की खपत बढ़ नहीं रही है। HSBC का इंडेक्स भी यही संकेत दे रहा है कि मैन्यूफ़ैक्चरिंग और सर्विसेज़ सेक्टर में गिरावट आई है। गाड़ियों की बिक्री पर भी ब्रेक सा लग गया है। अब त्योहार से उम्मीद है। रिज़र्व बैंक की मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी की बैठक सोमवार से हो रही है।

रिज़र्व बैंक के गवर्नर फ़ैसले की जानकारी बुधवार को देंगे, लेकिन बैठक से पहले आयीं ज़्यादातर रिसर्च रिपोर्ट कह रही है कि रेट कट अभी नहीं होगा। रेट कट दिसंबर में होगा। अगर ऐसा होता है तो माल या सर्विसेज़ की खपत में बढ़ोतरी में देर लग सकती है। रेट कट होने पर लोगों को सस्ता क़र्ज़ मिलता है तो खपत बढ़ती है। गाड़ियों और घरों की बिक्री बढ़ती है। कंपनियाँ भी नए प्रोजेक्ट लाती है तो नौकरियाँ आती है। इसलिए रेट कट जितनी जल्दी हो उतना अच्छा होगा।

(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)

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पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा का दर्जा देना सरकार का सुचिंतित निर्णय: अनंत विजय

किसी भी भाषा को जब शास्त्रीय भाषा के तौर पर मानने का निर्णय लिया जाता है तो कई कदम भी उठाए जाते हैं। शिक्षा मंत्रालय इन भाषाओं के उन्नयन के लिए कई प्रकार के कार्य आरंभ करती हैं।

Last Modified:
Monday, 07 October, 2024
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

पिछले दिनों भारत सरकार ने पांच भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की घोषणा की। मराठी, बंगाली, पालि, प्राकृत और असमिया को हाल ही में संपन्न केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में शास्त्रीय भाषा के तौर पर स्वीकार किया गया। जैसे ही इस, बात की घोषणा की गई कुछ विघ्नसंतोषी किस्म के लोग इसको महाराष्ट्र चुनाव के जोड़कर देखने लगे। इस तरह की बातें की जाने लगीं कि चूंकि कुछ दिनों बाद महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं इस कारण सरकार ने मराठी को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने की घोषणा की।

इसको मराठी मतदाताओं को लुभाने के प्रयास की तरह देखा गया। हर चीज में राजनीति ढूंढनेवालों को ये समझना चाहिए कि इन पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा की श्रेणी में रखने का निर्णय आकस्मिक तौर पर नहीं लिया गया है। भारतीय भाषाओं के इतिहास में आकस्मिक कुछ नहीं होता। बड़ी बड़ी क्रांतियां भी भाषा में कोई बदलवा नहीं कर पाती हैं। उसके लिए सैकड़ों वर्षों का समय लगता है। पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा का दर्जा देना मोदी सरकार का सुचिंतित निर्णय है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के बाद लालकिले की प्राचीर से अमृतकाल में विकसित भारत बनाने के लिए पंच-प्रण की घोषणा की थी।

उसमें से एक प्रण था विरासत पर गर्व। विरासत पर गर्व को व्याख्यायित करने का प्रयास करें तो इन भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देना राजनीति नहीं लगेगी। न ही किसी चुनाव में मतदाता को लुभाने के लिए उठाया गया कदम प्रतीत होगा। प्रधानमंत्री मोदी अपने निर्णयों में स्वयं उन पंच प्रण तो लेकर सतर्क दिखते हैं। प्रतीत होता है कि वो विरासत पर गर्व को लेकर देश में एक ऐसा वातावरण बनाना चाहते हैं जिसपर पूरे देश को गर्व हो सके। अपनी भाषाओं को शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में डालने के पीछे इस तरह का सोच ही संभव है।

किसी भी भाषा को जब शास्त्रीय भाषा के तौर पर मानने का निर्णय केंद्र सरकार लेती है तो उसके साथ कई कदम भी उठाए जाते हैं। शिक्षा मंत्रालय इन भाषाओं के उन्नयन के लिए कई प्रकार के कार्य आरंभ करती हैं। 2020 में तीन संस्थाओं को संस्कृत के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय बना दिया गया। पूर्व में घोषित भारतीय भाषाओं के लिए सेंटर आफ एक्सिलेंस बनाया गया। मराठी की बात कुछ देर के लिए छोड़ दी जाए। विचार इसपर होना चाहिए कि पालि और प्राकृत को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने में इतनी देर क्यों लगी। पालि और प्राकृत में इतनी अकूत बौद्धिक संपदा है जिसके आधार पर इन दोनों भाषाओं को तो आरंभ में ही शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में रखना चाहिए था।

बौद्ध और जैन साहित्य तो उन्हीं भाषाओं में लिखा गया। इनमें से कई पुस्तकों का अनुवाद आधुनिक भारत की भाषाओं में अबतक नहीं हो सका है। हम अपनी ही ज्ञान परंपरा से कितने परिचित हैं इसके बारे में विचार करना आवश्यक है। इन दिनों उत्तर भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के किसी सेमिनार में जाने पर विषय या वक्तव्य में भारतीय ज्ञान परंपरा अवश्य दिखाई या सुनाई देगा। इन सेमिनारों में उपस्थित कथित विद्वान वक्ताओं में से अधिकतर को भारतीय ज्ञान परपंरा के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं होता है। भारत की शास्त्रीय भाषाओं के बारे में जितना अधिक विचार होगा, उसमें उपलब्ध उत्कृष्ट सामग्री का जितना अधिक अनुवाद होगा वो हमारी समृद्ध विरासत के बारे में लोगों को बताने का एक उपक्रम होगा। आज अगर बौद्ध मठों में पाली या प्राकृत भाषा में लिखी सामग्री हैं तो आवश्यकता है उनको बाहर निकालकर अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर आमजन तक पहुंचाने का कार्य किया जाए। इससे सबका लाभ होगा। संभव है कि देश का इतिहास भी बदल जाए।

आवश्यकता इस बात की है कि मोदी कैबिनेट ने जो निर्णय लिया है उसको लागू करवाया जाए। शिक्षा मंत्रालय के मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान योग्य और समर्पित व्यक्ति हैं। उनको भाषा के बारे में विशेष रूप से रुचि लेकर, संगठन के कार्य के व्यस्त समय से थोड़ा सा वक्त निकालकर इसको देखना चाहिए। उनके मंत्रालय के अधीन एक संस्था है भारतीय भाषा समिति। इस समिति का गठन 2021 में भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार के लिए किया गया था। इस संस्था के आधे अधूरे वेवसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसका कार्य राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में परिकल्पित भारतीय भाषाओं के समग्र और बहु-विषयक विकास के मार्गों की सम्यक जानकारी प्राप्त करना और उनके क्रयान्वयन की दिशा में सार्थक प्रयास करना है।

इस समिति का जो तीसरा उद्देश्य है वो बहुत ही महत्वपूर्ण है। समिति को मौजूदा भाषा-शिक्षण और अनुसंधान को पुनर्जीवित करने और देश में विभिन्न संस्थाओं में इसके विस्तार से संबंधित सभी मामलों पर मंत्रालय को परामर्श का कार्य भी सौंपा गया है। ये महत्वपूर्ण अवश्य है लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है कि समिति ने मंत्रालय को क्या परामर्श दिए इसका पता नहीं चल पाता है। पता तो इसका भी नहीं चल पाता है कि समिति के किन परामर्शों पर मंत्रालय ने कार्य किया और किस पर नहीं किया। इस संस्था के गठन के तीन वर्ष होने को आए हैं लेकिन इसकी एक ढंग की वेबसाइट तक नहीं बन पाई।

इनके कार्यों के बारे में भी कुछ ज्ञात नहीं हो पाया है। बताया जाता है कि इनके परामर्श पर कुछ संपादित पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। इसके अध्यक्ष चमू कृष्ण शास्त्री संस्कृत के ज्ञाता हैं। संस्कृत को लेकर उनका प्रेम सर्वज्ञात है। संस्कृत के कितने ग्रंथ ऐसे हैं जिनका भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर उसको स्कूलों से लेकर महाविद्यालयों की शिक्षा से जोड़ा जा सकता है। बताया जाता है कि काशी-तमिल संगमम जैसे कार्यक्रम इस समिति के परामर्श पर आयोजित किए गए थे। आयोजन से अधिक ठोस कार्य करने की आवश्यकता है जो दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ सके ।

दरअसल सबसे बड़ी दिक्कत शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय के अधिकतर संस्थानों के साथ यही हो गई है कि वो आयोजन प्रेमी हो गए हैं। आयोजनों में कुछ ही चेहरे आपको हर जगह दिखाई देंगे। वो इतने प्रतिभाशाली हैं कि उनको हर विषय़ का ज्ञान है या फिर किसी के कृपापात्र। समितियों और संस्थाओं को लगता है कि किसी विषय पर आयोजन करवाकर, उसके व्याख्यानों को संपादित कराकर पुस्तक प्रकाशन से भारतीय भाषाओं का भला हो जाएगा।

संभव है कि हो भी जाए। पर आयोजनों से अधिक आवश्यक है कि इस तरह की समितियां सरकार को शोध प्रस्ताव दें, विषयों का चयन करके उसपर कार्य करवाने की सलाह विश्वविद्यालयों को दें। प्राचीन और अप्राप्य ग्रंथों की सूची बनाकर मंत्रालय को सौंपे जिससे उनका प्रकाशन सुनिश्चित किया जा सके। और इन सारी जानकारियों को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करे।

जब तक शास्त्रीय भाषाओं को लेकर गंभीरता से कार्य नहीं होगा, जबतक भाषा के प्राचीन रूपों के ह्रास और नवीन रूपों के विकास की प्रक्रिया से पाठकों को अवगत नहीं करवाया जाएगा तबतक ना तो भाषा की समृद्धि आएगी और ना ही गौरव बोध। भारतीय भाषाओं के लिए कार्य करनेवाली संस्थाओं की प्रशासनिक चूलें कसने की भी आवश्यकता है। मैसूर स्थित भाषा संस्थान मृतप्राय है उसको नया जीवन देना होगा तभी वहां भाषा संबंधी कार्य हो सकेगा। इसपर फिर कभी चर्चा लेकिन फिलहाल इन शास्त्रीय भाषाओं को लेकर जो चर्चा आरंभ हुई है उसको लक्ष्य तक पहुंचते देखना सुखद होगा।   

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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आरएसएस सौ बरस में कितना बदला और कितना बदलेगा भारत: आलोक मेहता

मेरे जैसे कुछ ही पत्रकार होंगे, जिन्हें 1972 में संघ प्रमुख गुरु गोलवरकर जी से मिलने, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह जी और के सी सुदर्शनजी से लम्बे इंटरव्यू करने को मिले।

Last Modified:
Monday, 07 October, 2024
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।  

राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ का स्थापना दिवस विजयदशमी है। हर वर्ष की तरह सरसंघचालक इसी दशहरे (इस बार 12 अक्टूबर ) को अपने स्वयंसेवकों को संघ के एक सौ वर्ष 2025 में पूरे करने पर आदर्शों, मूल्यों के साथ संगठन और हिन्दुस्थान की दशा दिशा रेखांकित करेंगे। यों पिछले दिनों यह बताया जा चुका है कि अन्य संगठनों की तरह शताब्दी वर्ष में कोई धूम धड़ाका नहीं किया जाएगा। किसी भी संगठन के लिए सौ वर्ष के बदलाव भविष्य निर्माण की समीक्षा के साथ भविष्य निर्माण की रुपरेखा तैयारी महत्वपूर्ण ही कही जाएगी। हिंदुत्व, समाज, राष्ट्र को समर्पण के आदर्शों के साथ आज़ादी के आंदोलन से स्वतंत्रता के बाद भी प्रतिबन्ध , जेल यातना तक झेलने के बाद संघ के स्वयंसेवकों के सत्ता के शिखर तक पहुँचने की सफलता किसी भी तरह कम नहीं कही जा सकती है।

इसलिए संघ में शिक्षित प्रशिक्षित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरी बार सत्ता में आने के बाद कुछ लोगों द्वारा यह सवाल उठाना अनुचित लगता है कि भाजपा के सत्ता में आने से संघ को क्या और कितना मिला? इन दिनों राजनीतिक क्षेत्रों और मीडिया में संघ भाजपा नेतृत्व में टकराव और बदलाव तक की चर्चाएं चल रही हैं।  लेकिन इसे राजनीतिक घटनाओं और संघ सहित विभिन्न दलों के नेताओं से मिलने के अपने पत्रकारिता के करीब 50 वर्षों के आधार पर कह सकता हूँ कि मत भिन्नता तो भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक बलराज मधोक के समय से रही और भविष्य में भी रह सकती है। लेकिन टकराव और संघ द्वारा अपने ही सिद्धांतों पर चलने वाली भाजपा को कमजोर करने, सबक सिखाने, प्रधानमंत्री को हटाने के प्रयास को केवल एक वर्ग विशेष या संगठनों में निचले स्तर के कुछ नेताओं का भ्रम अथवा उनके अपने स्वार्थ कहा जा सकता है।

इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि मेरे जैसे कुछ ही पत्रकार होंगे, जिन्हें 1972 में संघ प्रमुख गुरु गोलवरकर जी से मिलने, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह जी और के सी
सुदर्शन जी से लम्बे इंटरव्यू करने को मिले और अब भी संघ और भाजपा के नेताओं से मिलने बातचीत के अवसर मिले। इसका एक कारण यह भी रहा कि प्रारम्भिक वर्षों में संघ के प्रचारकों द्वारा स्थापित हिन्दुस्थान समाचार में संवाददाता के रुप में कार्य किया। उसके प्रबंध संपादक बालेश्वर अग्रवाल, उनके वरिष्ठ सहयोगी एन बी लेले , रामशंकर अग्निहोत्री के साथ राजनैतिक रिपोर्टिंग सीखने करने का लाभ 1975 तक मिला। दिलचस्प बात यह कि उसी अवधि में इन लोगों ने कांग्रेस के तत्कालीन शीर्ष नेताओं यशवंत राव चव्हाण, जगजीवन राम, विद्याचरण शुक्ल, द्वारका प्रसाद मिश्र जैसे नेताओं से परिचय कराया।

इसलिए बाद के वर्षों में भी इंदिरा गाँधी से नरेंद्र मोदी तक प्रधानमंत्रियों से मिलने बात करने समझने के अवसर मिले हैं। इसलिए जब मैं संघ के झंडेवाला में सत्तर के दशक में चमनलालजी की कॉपी या रजिस्टर में प्रचारकों के नाम पते संपर्क के अलावा सीमित संयमित व्यवस्था के दौर से वर्तमान दौर में करोड़ों की लागत से बनी भव्य इमारत, कंप्यूटर में दर्ज लाखों कार्यकर्ताओं के नाम, प्रचारकों के देश विदेश में कार्यों का विवरण सार्वजनिक होते देखता हूँ, तो कैसे मान सकता हूँ कि संघ को क्या मिला?

संघ की शाखाएं भारत में 2022-23 तक 68,651 हो गई। अगले साल अपने अस्तित्व के 100 साल पूरे होने का जश्न मनाने की तैयारी कर रहा संघ देश के सभी ब्लॉक तक पहुँचने और शाखाओं की संख्या को 100,000 तक ले जाने का लक्ष्य बना रखा है। भाजपा सरकार होने से उसे सिर्फ़ तार्किक रूप से ही फ़ायदा नहीं हुआ, बल्कि समाज में उसकी दृश्यता और स्वीकार्यता भी बढ़ती गई। अयोध्या में भव्य मंदिर निर्माण, कश्मीर से 370 की समाप्ति, परमाणु शक्ति सम्पन सुरक्षा के साथ पाकिस्तान चीन को करारा जवाब देने की क्षमता, आर्थिक आत्म निर्भरता के साथ हिन्दू धर्म, मंदिरों का विश्व में प्रचार प्रसार, समान नागरिक संहिता के लिए राज्यों में पहल जैसे संघ के लक्ष्य प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के बिना क्या पूरे हो सकते थे?

संघ भाजपा और सरकार के संबंधों को लेकर सितम्बर 2018 में  सरसंघचालक मोहन भागवत ने 'भविष्य का भारत और संघ का दृष्टिकोण ' विषय पर दिल्ली मे हुई एक व्याख्यान माला में स्पष्ट रुप से कहा था, संघ ने अपने जन्म से ही स्वयं तय किया है कि रोजमर्रा की राजनीति में हम नहीं जाएंगे। राज कौन करे यह चुनाव जनता करती है। हम राष्ट्र हित पर अपने विचार और प्रयास करते हैं। प्रधानमंत्री और अन्य नेता स्वयंसेवक रहे हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे नागपुर के निर्देश पर चलते हैं। राजनैतिक क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्त्ता या तो मेरी आयु वर्ग के हैं या मुझे वरिष्ठ और राजनीति में अधिक अनुभवी हैं। इसलिए उनको अपनी राजनीति चलाने के लिए किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं है।

यदि उनको सलाह की आवश्यकता होती है तो हम अपनी राय देते हैं। उनकी राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं और सरकार की नीतियों  पर भी कोई प्रभाव नहीं। वे हमारे स्वयंसेवक हैं। उनके पास विचार दृष्टि है। अपने अपने कार्यक्षेत्र में उन विचारों का उपयोग करने की शक्ति है। पत्रकार मित्रों से कभी कभी यह कहता हूँ कि यह सचमुच में परिवार का मामला है। कल्पना कीजिये नरेंद्र मोदी संघ में रहकर सरसंघचालक हो सकते थे और मोहन भागवत प्रधानमंत्री भी हो सकते थे। लेकिन उनके लक्ष्य तो समान ही होते। हाँ , कौन कितना कहाँ सफल हो सकता है इसलिए सबकी भूमिका परिवार तय करता है। फिर उस दायित्व को सफलता से निभाना है।

जहाँ तक बदलाव की बात है, महात्मा गाँधी और नेहरु के विचारों वाली कांग्रेस पार्टी या मार्क्स लेनिन के विचारों वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भारत ही नहीं रुस चीन तक में बहुत बदल चुकी हैं। इसलिए जो आलोचक केवल गुरु गोलवलकर की सबसे पुरानी किताब के हवाले से कुछ विचारों को ही वर्तमान संघ या भाजपा के विचार समझाने का प्रयास करते हैं, उन्हें संघ में लगातार हुए वैचारिक मंथन और परिवर्तनों पर भी ध्यान देना चाहिए। जहाँ तक मत भिन्नता की बात है अटलजी के सत्ता काल में स्वदेशी और श्रमिक संगठनों को लेकर दत्तोपंत ठेंगड़ी या मंदिर के मुद्दे पर अशोक सिंघल के बीच की स्थितियां अब कहीं नहीं दिखाई देती।

दूसरी तरफ इस बात का अंदाज लोगों को नहीं है कि शीर्ष स्तर पर संघ के प्रमुख नेता भारत में जन्मे लगभग 98 प्रतिशत लोगों को भारतीय हिन्दू मांनने की बात पर जोर देते रहे हैं , जिसमें  सिख , मुस्लिम , ईसाई , बौद्ध आदि शामिल हैं और वे किसी तरह की धार्मिक मान्यता उपासना करते हों। सरसंघचालक प्रो राजेंद्र सिंह ने 4 अक्टूबर 1997 को मुझे एक इंटरव्यू में स्पष्ट शब्दों में कहा था, हम यह मानते हैं कि भारत में जो मुसलमान हैं उनमें सी केवल दो प्रतिशत के पूर्वज बाहर से आए थे शेष के पूर्वज इसी देश के थे। हम उन्हें यह अनुभूति कराना चाहते हैं कि तुम मुसलमान हो पर भारतीय मुसलमान हो। हमारे यहाँ दर्जनों पूजा पद्धतियां है तो एक तुम्हारी भी चलेगी। इसमें हमें क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन तुम्हारी पहचान इस देश के साथ होनी चाहिए।

इस भारतीयकरण के लिए ही संघ भाजपा के नेता मदरसों या वक्फ के कट्टरपंथी विचारों और गतिविधियों को नियंत्रित करने के अभियान में लगी है। हाँ, निचले स्तर पर कुछ अतिवादी नेता हाल के वर्षों में कटुता की भाषा इस्तेमाल करने लगे। यह निश्चित रुप से न केवल मोदी सरकार की बल्कि भारत की छवि दुनिया में ख़राब करते हैं। उन्हें मोदी का असली दुश्मन कहा जा सकता है। इस दृष्टि से लोकतंत्र में न्यायिक व्यवस्था का लाभ है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य नियम कानून से ऊपर हटकर उत्तर प्रदेश में ' बुलडोजर से दंड ' देने के क़दमों पर रोक लगाई है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले दस वर्षों के दौरान अधिकांश राज्यों में साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए।

सत्तर से नब्बे के दशकों में ऐसे दंगों में सैकड़ों लोग मारे जाते थे। फिर भी कुछ विदेशी संगठन भारत में धार्मिक भेदभाव और उत्पीड़न के अनर्गल आरोपों वाली रिपोर्ट जारी करते हैं। उनका निशाना भारत की आर्थिक प्रगति है। संघ भाजपा की चुनौती यही है कि वह अपने अतिवादियों को निर्णायक महत्व नहीं दे और सत्ता की अपेक्षा सम्पूर्ण भारत और सामाजिक आर्थिक विकास के कार्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। जातिवादी राजनीति को साम्प्रदायिक तरीकों से नहीं निपटाया जा सकता है। समाज के सभी वर्गों की प्रगति से देश सशक्त समृद्ध हो सकता है।

असलियत यह है कि नरेंद्र मोदी में आरएसएस को अभी भी विचारधारा और राजनीतिक व्यवहार्यता का एक दुर्लभ संगम दिखाई देता है। इसलिए संघ नेताओं द्वारा मत भिन्नताओं को पारिवारिक संबंधों की तरह सुलझाने के दावे बहुत हद तक सही हैं। बाहर जो भी कहा जाए पूर्वोत्तर या दक्षिण भारत में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और सरसंघचालक मोहन भागवत की टीम ने मिलकर ही अपना प्रभाव बढ़ाया है। उनका लक्ष्य तत्कालिक लाभ के बजाय अगले पचास सौ वर्षों में भारत को अपने विचारों और आदर्शों से सुदृढ़ करना है। इस बार की विजया दशमी इसी तरह के संकल्प की अपेक्षा की जा सकती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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प्रशांत किशोर बिहार की जनता के सामने साफ विकल्प दें: रजत शर्मा

2 अक्टूबर को प्रशांत किशोर ने चंपारण से जनसुराज यात्रा की शुरुआत की थी। 2 साल में उनकी यात्रा बिहार के साढ़े 5 हजार गांवों में गई, 17 जिलों में घूम कर प्रशांत किशोर ने लोगों को अपने साथ जोड़ा।

Last Modified:
Friday, 04 October, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

गांधी जयंती 2 अक्टूबर को प्रशान्त किशोर औपचारिक रूप से पॉलिटिकल स्ट्रैटजिस्ट से नेता बन गए। प्रशान्त किशोर ने अपनी नई पार्टी बना ली। पार्टी का नाम है, जनसुराज पार्टी।  पटना के वेटेरिनरी कॉलेज ग्राउंड में  पूरे बिहार से पचास हजार से ज्यादा लोग जुटे। प्रशान्त किशोर ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी न तो वामपंथी और न ही  दक्षिणपंथी विचारधारा अपनाएगी, वो सिर्फ इंसानियत की राह पर चलेगी,  बिहार को नंबर वन राज्य बनाएंगे, बिहारियों के सम्मान के लिए काम करेंगे। पार्टी के झंडे पर बापू और बाबा साहब दोनों की फोटो होगी।

प्रशान्त किशोर ने कहा कि अगर बिहार में उनकी पार्टी की सरकार बनती है तो एक घंटे के भीतर शराबबंदी को हटा देंगे, शराब से जो पैसा टैक्स के तौर पर मिलेगा, उससे स्कूल बनवाएंगे, बच्चों को पढ़ाएंगे क्योंकि अच्छी शिक्षा ही सारी परेशानियों से निजात दिला सकती है। प्रशान्त किशोर न पार्टी के अध्यक्ष होंगे, न मुख्यमंत्री पद के दावेदार। रिटायर्ड IFS अधिकारी मनोज भारती जनसुराज पार्टी के कार्यवाहक अध्यक्ष होंगे। प्रशान्त किशोर की पार्टी के सभी बड़े फैसले नेतृत्व परिषद करेगी।

दो साल पहले 2 अक्टूबर को प्रशांत किशोर ने चंपारण से जनसुराज यात्रा की शुरुआत की थी। 2 साल में उनकी यात्रा बिहार के साढ़े 5 हजार गांवों में गई, 17 जिलों में घूम कर प्रशांत किशोर ने लोगों को अपने साथ जोड़ा। इसके बाद जनसुराज पार्टी का एलान किया। जनसुराज पार्टी बिहार के अगले इलेक्शन में सभी 242 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी। मंच पर प्रशांत किशोर के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव, पूर्व सांसद मुनाज़िर हसन, पूर्व एमएलसी रामबली चंद्रवंशी, कर्पूरी ठाकुर की पोती जागृति ठाकुर, मनोज भारती भी मौजूद थे।

प्रशांत किशोर की टीम में कई अनुभवी अफसर हैं, जो अच्छी नौकरी छोड़कर उनके साथ जुड़े हैं। असम में तैनात तेजतर्रार IPS अफसर आनंद मिश्रा मूलरूप से बिहार के हैं। उन्हें असम में सिंघम कहा जाता है। अब आनंद मिश्रा टीम प्रशांत किशोर का हिस्सा हैं।

प्रशान्त किशोर के मैदान में उतरने से बिहार की राजनीतिक पार्टियों में हलचल है। सबकी नजर प्रशान्त किशोर की रणनीति पर है। JD-U के महासचिव अशोक चौधरी ने कहा कि प्रशांत किशोर पहले पैसा लेकर चुनाव लड़वाते थे और अब पैसा बनाने के लिए खुद चुनाव लड़ेंगे। केन्द्रीय मंत्री और LJP अध्यक्ष चिराग पासवान ने कहा, चुनाव कोई भी लड़ सकता है, लेकिन फैसला तो जनता करती है।  

लालू यादव की बेटी मीसा भारती ने प्रशान्त किशोर की पार्टी को बीजेपी की बी टीम बता दिया।  बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू के नेताओं की बात सुनकर एक बात तो साफ दिख रही है कि प्रशान्त किशोर की एंट्री से सब परेशान हैं। प्रशान्त किशोर राजनीति में नया नाम नहीं है, लेकिन नेता के तौर पर नए हैं। वह अचानक राजनीति में नहीं कूदे हैं। दो साल तक बिहार के गांव-गांव की खाक छानने के बाद मैदान में उतरे हैं, इसलिए उन्हें जनता की नब्ज़ पता है, उनका विजन स्पष्ट है, उन्हें रास्ता भी पता है, लक्ष्य भी है। प्रशान्त किशोर ने पार्टी बनाई,  अच्छा किया। बिहार को एक नई सोच की जरूरत है। साफ और सच्ची बात कहने वाले लीडर की आवश्यकता है।

प्रशांत किशोर ने जिस तरह से पार्टी में फैसले लेने की और  उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया तैयार की है, वो भी इंप्रैसिव है। मैं उनकी बस एक ही बात से सहमत नहीं हूं। प्रशांत किशोर का ये कहना कि मैं मुख्यमंत्री नहीं बनूंगा सही विचार नहीं है। अगर वह वाकई में बिहार और बिहारियों को उनका हक दिलाने के लिए लड़ना चाहते हैं, तो उन्हें front foot पर आकर खेलना होगा, राजनीति में non playing captain की कोई जगह नहीं होती। ये कहने से काम नहीं चलेगा कि मैं नहीं बनूंगा, पार्टी किसी और को चुनेगी, मैं तो फिर से पैदल चलूंगा, इससे बिहार के लोगों के मन में भ्रम पैदा होगा।

प्रशांत किशोर को बिहार की जनता के सामने साफ विकल्प देना चाहिए। अपने आप को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए। लोगों के सामने स्पष्ट विकल्प हो कि वो प्रशांत किशोर को अपना नेता मानते हैं या नहीं, उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं या नहीं। पिछले दो साल में जहां जहां प्रशांत किशोर गए हैं, लोगों ने उनकी बात सुनी है, उन पर भरोसा किया है। उन्हें जन सुराज के नेता के तौर पर देखा है।

इसलिए कोई और नेता कैसे हो सकता है? प्रशांत किशोर के पास जिम्मेदारी से पीछे हटने का ऑप्शन नहीं है। वह जन सुराज का फेस हैं और ये फैसला बिहार की जनता करेगी कि वो इस face को पसंद करती है या नहीं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

 

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महात्मा गांधी आजीवन फिल्मों के प्रति क्यों उदासीन बने रहे?: अनंत विजय

किशोरावस्था में हरिश्चंद्र नाटक से प्रभावित गांधी आजीवन फिल्मों के प्रति क्यों उदासीन बने रहे? फिल्म राम राज्य देखने के लिए उनको किसने तैयार किया। बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 30 September, 2024
Last Modified:
Monday, 30 September, 2024
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

कुछ सप्ताह पूर्व मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के सिलसिले में मुंबई जाना हुआ था। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के परिसर में इस फेस्टिवल का आयोजन था। उसी परिसर में स्थित गुलशन महल में भारतीय सिनेमा के राष्ट्रीय संग्रहालय को जाने और उसको देखने का अवसर प्राप्त हुआ। संग्रहालय में एक जगह गांधी गांधी का पुतला बनाकर उसको कुर्सी पर बिठाया गया है। उनके सामने स्क्रीन पर राम राज्य फिल्म का एक स्टिल लगा हुआ है।

ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी राम राज्य फिल्म देख रहे हैं। कहा जाता है कि बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी जिसका नाम है राम राज्य। इस बात का उल्लेख देश-विदेश के कई लेखकों ने किया है। एक बेहद दिलचस्प पुस्तक है ‘द चैलेंजेस आफ सिल्वर स्क्रीन’ जिसमें राम, जीजस और बुद्ध के सिनेमाई चित्रण पर विस्तार से लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखक हैं फ्रीक एल बेकर।

इस पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने की चर्चा की गई है। सिनेमा और संस्कृति पर विपुल लेखन करनेवाली रेचल ड्वायर ने भी अपनी पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने का उल्लेख किया है। गांधी और सिनेमा पर लिखी अपनी पुस्तक में इकबाल रिजवी ने विस्तार से और रोचक तरीके से इस प्रसंग पर लिखा है।

इस पर बाद में चर्चा होगी लेकिन उसके पहले गांधी के फिल्मों और नाटक को लेकर विचार को जानना भी दिलचस्प होगा। फिल्म संग्रहालय में ही कुछ पट्टिकाएं लगी हैं जिनपर कुछ टिप्पणियां प्रकाशित हैं। ऐसी ही एक पट्टिका पर लिखा है, मद्रास (अब चेन्नई) के अत्यंत प्रतिष्ठित वकील बी टी रंगाचार्यार के नेतृत्व में इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी रिपोर्ट (आईसीसी) का गठन ब्रिटिश प्राधिकारियों द्वारा सेन्सरशिप विनिमयों में अमेरिकी आयात को रोकने के लिए किया गया था।

इस वृहदाकर रिपोर्ट में ब्रिटिश इंडिया के सभी भागों को शामिल किया गया है तथा महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, दादासाहेब फाल्के जैसे सैकड़ों महान हस्तियों के मौखिक एवं लिखित राय शामिल हैं। इसका प्रकाशन 1928 में किया गया। इसके खंड संख्या 4 में पृष्ठ संख्या 56 पर महात्मा गांधी का दिनांक 12 नवंबर 1927 का बयान दर्ज है। जो इस प्रकार है- भले ही मुझे जितना भी बुरा लगा हो मुझे आपके प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए।

क्योंकि मैंने कभी सिनेमा देखा ही नहीं। लेकिन किसी बाहरी का भी इसने जितना अहित किया है और कर रहा है वो प्रत्यक्ष है। यदि इसने किसी का भला किसी भी रूप में किया है तो इसका प्रमाण मिलना अभी बाकी है। इस टिप्पणी से गांधी की फिल्मों को लेकर राय का स्पष्ट पता चलता है। ऐसा नहीं है कि गांधी जी की फिल्मों को लेकर ये राय अकारण बनी थी। वो जब स्कूली छात्र थे तब नाटक देखा करते थे और उससे प्रभावित भी थे।

संग्रहालय की एक दूसरी पट्टिका पर इसका उल्लेख है, मोहनदास करमचंद गांधी जब स्कूली विद्यार्थी थे उन्होंने एक गुजराती नाटक देखा था, जिसका नाम हरिश्चन्द्र था। इस नाटक का प्रभाव आजीवन उन पर रहा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है- मैंने किसी ड्रामा कंपनी द्वारा मंचित नाटक को देखने की अनुमति अपने पिता से प्राप्त कर ली थी। हरिश्चन्द्र नामक इस नाटक ने मेरा ह्रदय जीत लिया।

मैं इसे देखकर कभी नहीं थकता। लेकिन उसे देखने की अनुमति मैं कितनी बार प्राप्त करता। इसने मुझे परेशान किया और मैं सोचता रहा कि मैंने स्वयं असंख्य बार हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई होती। हम सभी हरिश्चंद्र की भांति सत्यवादी क्यों नहीं होते? यही प्रश्न मुझे दिन रात परेशान किए रखता। हरिश्चन्द्र की भांति सत्य का अनुसरण करना और सारे कष्टों को झेलना एक ऐसा आदर्श था जिसने मुझे प्रेरित किया । मैं पूर्णत: हरिश्चन्द्र की कहानी में विश्वास करने लगा। इन सभी विचारों से बेचैन होकर मैं अक्सर रोने लगता। किशोरावस्था से ही गांधी को ये पता चल गया था कि फिल्मों या नाटकों का मानस पर कितना असर होता है।

जब वो स्वाधीनता के संघर्ष के लिए मैदान में उतरे तो उन्होंने कई जगहों पर देखा कि कई युवा पार्सी नाटकों की महिला कलाकारों के चक्कर में घर बार छोड़कर नाटक कंपनी के पीछे चल देते थे। इसको देखकर गांधी के मन में इस माध्यम को लेकर उदासीनता बढ़ने लगी। उसके बाद एक और घटना घटी। मीराबेन की सिफारिश पर गांधी जी ने एक फिल्म देखने की हामी भरी। फिल्म का नाम था मिशन टू मास्को। रिजवी लिखते हैं कि इस फिल्म में तंग कपड़े पहनकर लड़कियां नाच रही थीं।

थोड़ी देर तक तो बापू झेलते रहे लेकिन फिर बीच में ही उठकर चले गए। उस दिन उनका मौन व्रत था सो कुछ कहा नहीं। अगले दिन उन्होंने लिखा, ‘मुझे नंगे नाच दिखाने की कैसे सूझी। मैं तो दंग रह गया, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था।‘ दरअसल मीराबेन को एक पारसी फोटोग्राफर ने गांधी को फिल्म दिखाने के लिए राजी कर लिया था। सबको इस घटना के बाद काफी अफसोस हुआ। फिल्म राम राज्य देखने के लिए बापू को कनु देसाई ने तैयार किया था। कनु देसाई गांधी की सेवा करते थे। वो विजय भट्ट की फिल्म राम राज्य के कला निदेशक रह चुके थे।

उनकी बात बापू ने मान ली और कहा कि एक विदेशी फिल्म देखने की गलती कर चुका हूं इसलिए भारतीय फिल्म देखनी पड़ेगी। बापू की सहयोगी सुशीला नायर ने फिल्म के लिए गांधी के 40 मिनट तय किए थे, लेकिन कहा जाता है कि बापू को ये फिल्म इतनी अच्छी लगी थी कि वो पूरे डेढ़ घंटे तक बैठकर राम राज्य देखते रहे थे। फिर विजय भट्ट की पीठ थपथपाई और निकल गए।

इन प्रसंगों को जानने के बाद ये लगता है कि बापू फिल्मों के विरोध में नहीं थे बल्कि फिल्मों में दिखाई जानेवाली सामग्री के विरोधी थे। 1927 का उनका बयान इसकी ओर ही संकेत करता है। उनको फिल्मों का जनमानस पर पड़नेवाले असर का अनुमान भी था। वो चाहते थे कि फिल्मों के माध्यम से लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार किया जाए। स्वाधीनता के संघर्ष में गांधी के पदार्पण के बाद कई ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गांधीवादी विचारों को फैलाने में बड़ा योगदान किया।

1939 में तमिल भाषा में बनी फिल्म त्यागभूमि को उस दौर की सर्वाधिक सफल फिल्मों में माना जाता है। ये फिल्म प्रख्यात तमिल लेखक आर कृष्णमूर्ति की कृति पर आधारित है। इस फिल्म में गांधीवादी विचारों को प्रमुखता से दिखाया गया था। बाद में इसको अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी तरह से अगर देखें तो तेलुगु में बनी फिल्म वंदे मातरम ने भी गांधी के विचारों को तेलुगु भाषी जनता के बीच पहुंचाने का बड़ा काम किया।

भालजी पेंढारकर ने अपनी मूक फिल्म वंदे मातरम में अंग्रेजों की शिक्षा नीति की आलोचना की थी।  1943 में बनी हिंदी फिल्म किस्मत के गाना दूर हटो ये दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है बेहद लोकप्रिय हुआ था। ऐसा नहीं है कि गांधी को ये पता नहीं होगा कि इस तरह की फिल्में बन रही हैं। वो चाहते होंगे कि फिल्मकार राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को समझें और अपनी फिल्मों के कंटेंट के बारे में निर्णय लें। गांधी जैसा व्यापक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति सिनेमा विरोधी हो ये मानना कठिन है।  

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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